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________________ महत्त्व देंआत्म-मूल्यों को दुनिया में न कोई ओछा है, न अज्ञानी। मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी और पेड़-पौधे भी महान और ज्ञानी हैं। बोधि उन्हें भी है। अनुभव की क्षमता से वे भी सम्पत्र हैं। इसलिए स्वयं के लिए यह कहने की आदत छोड़ देनी चाहिए कि मैं अधमाधम हूं, निरा अज्ञानी हूं। अपने आपको हीन और अज्ञानी मानना कोरी भ्रान्ति है। मनुष्य सम्राट है। प्रत्येक अस्तित्व अपने आपका राजा है। पेट के कारण वह किसी का चाकर भले ही कहला ले, पर पेट-के पार तो वह खुद ही मालिक है। मेरा प्रयास यही है कि व्यक्ति अपनी मालकियत पहचाने; स्वयं को ओछा कहने की प्रवृत्ति से मोक्ष पाए। यहां हर कोई विराट् है। हर कोई आत्मवान् है। हर कोई भगवान है। प्रत्येक मनुष्य गत्यात्मक चेतना का धनी है। किसी को अधम और किसी को उत्तम कहना तो मात्र विकृत समाज-व्यवस्था है। मनुष्य को चाहिए कि वह आंख आकाश की ओर उठाए। धरती पर आंख गाड़ने से थोड़ा-सा ग्रहण होगा और ऊपर उठाने से सारा आकाश आंखों में होगा। आंख सम्पूर्ण विराट् को स्वयं के दुकूल पात्र में समवा सकती है। आंख की क्षमता बहुत बड़ी है। क्षुद्रता है व्यक्ति की जो अपने-आपको छोटा निकम्मा मान रहा है। नीचे झांकना क्षुद्रता है, ऊपर देखना विराटता। यहां हम सब समान हैं। जैसा मैं, वैसे ही सब। जैसा मुझे अपना दिया जलता दिखाई देता है, वैसा ही औरों का भी। दिक्कत यही है कि आदमी अपने ज्योतिर्मय दिये को देखने की कोशिश नहीं करता। वह तो बस भागा जा रहा है रोशनी की तलाश में। भागिये मत; देखिये। रोशनी बह रही है अपने ही भीतर। प्रकाश विद्यमान है अपने ही अन्दर। स्वयं ही बनिये स्वयं के दीपक-अप्प दीपो भव। ___ जीवन सबका स्वतंत्र है। मैं किसी के जीवन में हस्तक्षेप न करूंगा। मेरा तो मात्र इतना ही कहना है कि जल रहे दिये को जलाने के लिए दियासलाई मत खोजिये। अपने को संसार और समाधि 93 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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