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________________ अज्ञानी कहकर हीनता की घोषणा मत करिये। कुछ करना ही है तो अपनी अर्थवत्ताओं को जगाइये। जागरण ही आत्म-उपलब्धि है। इतना समझ लेना ही सम्बोधि-धर्म को आचरण में प्रगट करना है। - आत्मा उपलब्ध है। जीवन ही आत्मा है। उसे खोजना नहीं है, मात्र पहचानना है। धन सबकी जेबों में है। आत्मज्ञानी वह है जिसने हाथ डाल लिया है अपनी जेब में। धन तो व्यक्ति के पास ही है, चाहे जेब में हाथ डाले या सकुचाया रखे। फर्क सिर्फ इतना ही है कि जेब में हाथ डाल लिया, तो धनवान और न डाला तो खुद के पास धन रहते हुए भी बेखबर होने के कारण निर्धन। जेब में हाथ ले जाने की प्रक्रिया का नाम ही ध्यान है। ___ विश्व में अभी करीब तीन सौ धर्म हैं। कोई धर्म ऐसा नहीं है, जो मनुष्य को अन्तरज्योति की उपेक्षा करने की बात कहता हो। मैं तो जो कुछ भी कहूंगा, जब भी कहूंगा, व्यक्ति के स्वयं के मूल्यों के लिए कहूंगा। __ यदि मैं कहता हूं कि गुस्ताखी मत करो, तो आत्म-मूल्यों के लिए कह रहा हूं। यदि मैं कहता हूं किसी को माफ कर दो, तो वह भी आत्म-मूल्यों के लिए ही। कषाय हो या द्वेष उससे छुटकारा आत्म मूल्यों की रक्षा ही है। ___ आत्म-मूल्य से बेहतर कोई भी जीवन-मूल्य नहीं है। जो व्यक्ति आत्म मूल्य को ही जीवन-मूल्य मानता है, उसके लिए संसार में बलात् प्रवृत्ति कुछ भी नहीं होती। स्त्री और पुरुष के बीच होने वाली क्षुद्रता आत्म-मूल्यों के ह्रास काकारण है। आत्म-मूल्यों का सम्मान करने वाला मानवीय मूल्यों का सच्चा अनुयायी है। आत्म-मूल्य प्राथमिक हों और विश्वास आनुषंगिक, तो ही जीवन में चैतन्य-क्रान्ति सम्भव है। आत्म-मूल्यों का समर्थन मानवीय मूल्यों का अनुमोदन है और यही वसुधैव कुटुम्बकम् के प्रति आस्था की आधारशिला है। यदि ऐसी सम्भावना मुखर हो जाये, तो कहां होगा फंसना अन्ध-विश्वासों तथा रूढ़ियों के भंवर में। ___ कहते हैं; महादेवी भिक्षु-जीवन स्वीकार करने के उद्देश्य से लंका के बौद्ध महास्थविर से मिलने गई। महादेवी ने अपनी सारी सम्पत्ति दान कर दी, क्योंकि वे भिक्षुणी बनने जा रही थीं। पर जब वहां राजशाही ठाठ-बाट देखा तो उन्हें लगा, यह कैसा भिक्षु है; भई! इतना तामझाम ही रखना था तो भिक्षु काहे को बने? सिंहासन पर बैठे महास्थविर ने महादेवी से बातचीत करते समय अपने चेहरे को पंखे से ढक रखा था। संसार और समाधि 94 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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