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कहते हैं कि एक बार संसार में सत्ताईस गाड़ियां क्रोध की आईं। दाता उलझ गया कि किसको कितनी बांटी जाये। पता नहीं, उसे क्या सूझा कि क्रोध की रेवड़ियों से भरी बीस गाड़ियां तो साधुओं में बांट दी और शेष सात गाड़ियां सारे संसार में। शायद इस बात में कुछ अतिशयोक्ति हो सकती है। पर शत-प्रतिशत गोल-गप्प नहीं है। इसमें कुछ तथ्य भी है,सच्चाई भी है। इसलिए मैं इस दोहे को वजनदार समझता हूं।
एक प्रोफेसर हैं डॉक्टर सागरमल जैन। वे प्रोफेसर हैं तो संसार में, किन्तु गृहस्थ-संत कहूं तो सत्य का सही बयान होगा। सन्ध्या-प्रतिक्रमण के बाद मैं किसी शास्त्रीय ऊहापोह में उलझ गया। उलझन का समाधान कैसे हो, इसी उद्देश्य से असमय में ही मैंने उन्हें बुलाया। वे शीघ्र ही आ गये।
उस समय रात के करीब नौ बजे थे। डेढ़ घण्टे तक शास्त्रीय सन्दर्भो पर विचार मंथन होता रहा। उठने से पहले उन्होंने अपने सिर पर हाथ रखा और हाथ के जोर से सिर को दबाया। वापस जब उन्होंने हाथ नीचे किया तो उनका हाथ लहलहान था। मैं और मेरे भाई ललितप्रभजी दोनों स्तब्ध रह गये। मैं झट से खड़ा हुआ और उनके लहुलुहान माथे को देखा। खून उनकी कमर तक बहा चला गया था।
मैने कहा यह क्या हो गया? बोले कुछ नहीं, ऐसे ही थोड़ी चोट लग गई। मैं चकित हुआ। पूछा कैसे लग गई? तो उन्होंने कहा कुछ नहीं, आप इसे प्रमुखता मत दीजिए। मैंने कहा आखिर क्या हुआ? तो वे बोले सेविंग करवाकर नहाने के लिये बैठा। खड़े होते समय नल शिर में चला गया। मैने कहा, यदि ऐसी बात थी तो कष्ट की कोई आवश्यकता नहीं थी। वे बोले, यह कैसे सम्भव हो सकता है। मेरे लिए तो आपकी सूचना ही प्रमुख थी। चोटें तो यूं लगा ही करती हैं। मेरा समय आपके काम आ गया। ___ उनके शब्दों ने मेरे अन्तर की वीणा के सोये हुए तारों को छेड़ दिया। मेरी आंखें भर आई। एक ऊहापोह का समाधान पाया, तो दूसरे ने नई प्रेरणा दी। तब मैंने सीखा कृष्ण के समत्व-योग को, महावीर के समभाव को और बुद्ध के मध्यम मार्ग को।
शायद आप लोगों के लिए इस घटना की कोई कीमत न हो। यह एक छोटी-सी घटना लगती हो, पर इस घटना ने मेरी दृष्टि बदल दी। घटना घटना ही होती है। चाहे वह छोटी हो या बड़ी। जीवन में नई दिशा किसी से भी, कहीं से भी, किसी तरह से भी आ सकती है। संसार और समाधि
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--चन्द्रप्रभ
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