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________________ उस आहार पर आत्म-ग्लानि स्वाभाविक थी। उसी के फलस्वरुप उनके द्वार पर कैवल्य ने दस्तक दी ! जिन्दगी में परिस्थितियां हमेशा एक-सी बनी रहे यह मुश्किल है। जिन्दगी कई करवट बदलती है। चाहे जैसी करवट बदले, पर स्वयं की तराजू न कंपे इसका ध्यान रखना । जैसे ही तराजू कंपी, जीवन का समत्व गिर जायेगा। जिसके मूल में समभाव की साधना है, वही समाधि में अंकुरित और पल्लवित होता है। चाहे कैसी भी स्थिति क्यों न आ जाये, मगर साधक सन्तुलित रहे, समत्व को साधे । सन्तुलन ही समत्व की पहचान है। वे लोग तो अवश्य साधें, जो साधना की पगडंडी पर पहला कदम रखने की तैयारी में हैं या रख चुके हैं। साधक के लिए यह बीच का रास्ता जबरदस्त लाभदायक है। समभाव के बीच के रास्ते को साधने के लिए ही योग, ध्यान, जप, तप वगैरह किये जाते हैं। गृहत्याग भी करते हैं। जो साधु बनते हैं पर समता की साधुता नहीं रखते तो वे कहलाने भर के साधु है। समता ही साधुता है । क्रोध कीचड़ है। जिन्हें बात-बात में क्रोध आता है, वे वास्तव में गंगा में रहने वाले बिच्छु हैं। साधु और क्रोध ! दोनों का कहां संबंध ! साधु साधु है और क्रोध क्रोध है । साधु सोना है और क्रोध अंगारा है। संसार के इतिहास में जब-जब भी अभिशाप शब्द का प्रयोग हुआ, उसमें प्रायः कर साधु जरूर शरीक रहा है। हालांकि ऐसे लोगों को साधु तो नहीं कहना चाहिए, जो श्राप देते फिरते हैं। श्राप और साधु भला दोनों में कहीं कोई मेल है? श्राप तो राक्षसी प्रवृत्ति है, जहरीली गैस है। दुनिया की सबसे अधम चीज है। साधु जीवन की ऊंचाई है, सच्चाई है, दिव्यता है, ईश्वरीय आभा है। साधु विश्व का एक आदर्श है। पर दुर्वासा जैसे ऋषि इसके अपवाद हैं। दुर्वासा ने अपनी जिन्दगी में संसार का जितना भला किया, उससे दस गुना अधिक बुरा किया। दुर्वासा ने की होगी ऊंची-से ऊंची साधना। भगवान को भी अपनी चुटकी में कैद कर लिया होगा। पर गहराई में जाकर सोचता हूं तो रावण और दुर्वासा दोनों को एक ही मंच पर पाता हूं। फर्क इतना ही है कि रावण राजा था और दुर्वासा ऋषि । रावण कामुक था और दुर्वासा क्रोधी | साधुता तो राम की बखानी जाएगी। मैने बचपन में सुना है तुलसी इस संसार में, सत्ताईस गाडा रीस । सात गाडा संसार में, सन्तों में है बीस।। 90 संसार और समाधि Jain Education International For Personal & Private Use Only -चन्द्रप्रभ www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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