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________________ लोगों ने उनको मारा, पीटा, घसीटा, उठा-उठाकर पटका, कानों में कीलें ठोकीं, पर वे तो संतुलित रहे । यदि वे समभाव को छोड़ देते उनका चित्त विपरीत परिस्थिति से कंप जाता तो सचमुच उन्हें परम ज्ञान उपलब्ध न हो पाता । परम ज्ञान की उपलब्धि में परम सहायक रहा उनके लिए समत्व - योग । आचार्य स्कन्दक और उनके पांच सौ शिष्य थे। उन्हें मंत्री पालक घाणी में बैल द्वारा पिलवा देता है ! पर समत्व-योग की साधना के कारण पांच सौ शिष्य मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, वहीं स्कन्दक मंत्री के प्रति विभाव परिणाम होने के कारण अपनी गति बिगाड़ लेते हैं। साधना के इससे बढ़कर और कौन-से मापदण्ड हो सकते हैं? गुरु गुड़ ही रह गये, पर चेले समभाव के माधुर्य में समाधि का रसास्वादन कर बैठे। आपने सोम मुनि का नाम सुना होगा । सोम मुनि को मार्ग पर चलते-चलते परम ज्ञान उपलब्ध हुआ। कहते हैं सोम मुनि एक बार आचार्य चण्डरुद्र को कंधों पर बैठाकर ले जा रहे थे। रास्त में उबड़-खाबड़ जमीन होने के कारण आचार्य को कुछ तकलीफ हुई। वही उनके लिए विभाव का कारण बनी। वे 'चण्ड' से प्रचण्ड हो गये। पर सोम सौम्य हो गये। समता की निर्मल गंगा में नहाकर सोम ने पवित्रता प्राप्त कर ली। प्राप्त हो गया उन्हें परमज्ञान, मंजिल की दूरी तय करते हुए। कुरगुडुक भी आपसे छिपे नहीं हैं। वे जन्म-जन्म के भूखे थे, उनके साथ यह कहावत चरितार्थ हो गई थी। उन्होंने जीभ का स्वाद तो जीत लिया मगर भूख के सामने वे पराजित हो चुके थे। कई मुनि आठ, पन्द्रह उपवास में थे तो कई मासक्षमण करने वाले, महीनेमहीने भर तक भूखे रहने वाले । पर कुरगुडुक मुनि तो ठहरे जनम-जनम के बुभुक्षित। वे भूख को न रोक पाए और जब वे भिक्षा लेकर गुरु के पास पहुंचे आहार दिखाने के लिए, तो गुरु ने क्रोधित होकर आहार- पात्र में थूक दिया। दुत्कारते हुए गुरु ने कहा मुने! तुम्हें धिक्कार है कि महापर्व में भी तू खाने के लिए मर रहा है। कुरगुडुक के लिए यह कटाक्ष तमाचा था। पर वे मौन रहे। मौन कैसे रह गये। हैवानियत क्यों नहीं आई? वास्तव में यहां मौन रहकर उन्होंने मुनित्व को सार्थक कर दिया। मौन रुप में ही प्रकट की मुनित्व की सच्ची परिभाषा | कुरगुडुक ने अन्य मुनियों को भी आहार दिखाया और आहार ग्रहण करने के लिए निवेदन किया। मगर सभी धिक्कारने लगे । कुरगुडुक तो इस पर भी शान्त रहे । सोचने लगे, मैं तपस्वी मुनियों के थूकने के लिए थूक दान या पात्र न ला सका। संसार और समाधि 89 Jain Education International For Personal & Private Use Only - चन्द्रप्रम www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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