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________________ बचता है। यों व्यक्ति दुःख में उलझ जाता है। उसके इस संघर्ष में चित्त का विकेन्द्रीकरण होता है। वह उस विकेन्द्रीकरण से अपनी आन्तरिक शक्तियों को बिखेर डालता है। उसकी शक्तियां भटक जाती हैं। वे कुण्ठित हो जाती हैं। उनका दोहरा संघर्ष चलता है सुख और दुःख में, लाभ और अलाभ में, जीवन-मरण में, संयोग-वियोग में। जो व्यक्ति संघर्ष से छूटना चाहता है, उसके लिए बीच का मार्ग है। और वह है समभाव। मन की दृष्टि में शान्ति की रोशनी ही संघर्ष से मुक्ति है। यही वह मार्ग है, जो जय एवं पराजय दोनों परिस्थितियों में मनुष्य को टूटने से रोकता है। यह तटस्थता है। इसे अपनाने के बाद कहां रह जाता है मनमुटाव और कहाँ रहती हैं दिल की दूरियां ___ समभाव है सरिता। सरिता दो तटों के बीच बहने वाली है। यही तो वह बीच का रास्ता है, जो हमारी जीवन नौका को सागर तक ले जाता है। सागर यानि विराट, भूमा, स्वयं का परमात्म स्वरुप। इसलिए जो सबमें समभाव रखता है, वही साधक है। समभाव के द्वारा ही तनाव से मुक्ति पाई जाती है। अभी तक तो हम अपने भीतर से बाहर आये हैं। अब वापस बाहर से भीतर लौटना है। यह वापसी की प्रक्रिया ही प्रतिक्रमण है। लौटा लाओ गंगा को फिर से गंगोत्री की ओर। मूल उत्स की ओर लौटने का नाम ही साधना है। हमें अपने स्वभाव को ओर जाना है। विभावों को छोड़ना है। हमें अपने निकुंज की ओर आने के लिए पंख फैलमा है। हमने इच्छाओं की चिड़ियाएं बनकर सारे आकाशमण्डल में भ्रमण किया। अब सांझ हो गई है। पुनः लौट आएं अपने नीड़ में, साधना के अन्तरंगीय कक्ष में। अपनी उन सारी चिड़ियाओं को, चेतना को खण्ड-खण्ड में बंटी ऊर्जा को केन्द्रित कर लें। फैलाव बहुत हो गया। अब सिकुड़ना शुरु करें। जो चिड़ियाएं अभी तक आकाश में उड़ रही हैं, वे वापस आ जाएं अपने घोंसले में। जो सूर्य की किरणें अभी तक सारे संसार को प्रकाशित कर रही हैं। सूर्यास्त का समय आ गया है। अपने भीतर उन सारी किरणों को समेट लें। सूरज हर सुबह अपनी किरणें फैलाता है और शाम को वापस अपने में खींच लेता है। हम भी दिन में सेवा के लिए वृत्ति फैलायें और शाम को वापस अपने अन्दर खींच लें। यही सबसे बड़ा उद्योग है, ऊंचा योग है। किरणों को अपने में समेटना, चिड़ियाओं का नीड़ में लौटना, ममत्व को छोड़कर समत्व में स्थित हो जाना बस इसी का नाम है साधना। ___ इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जिनमें समभाव की साधना एड़ी से चोटी तक आभा फैलाती मिलेगी। महावीर को ही लीजिये। इनके जैसा समत्वयोगी कोई नहीं हुआ। संसार और समाधि 88 -चन्द्रप्रभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003899
Book TitleSansar aur Samadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1991
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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