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थे— 'क्या कहती हो तुम ?' युवती ने कहा- 'हाकुइन के पास जो बच्चा है, वह हाकुइन का नहीं है । मैंने अपने प्रेमी को निंदा और अपयश से बचाने के लिए संत हाइन का नाम ले लिया था, लेकिन वह संत इतना महान् है कि उसने अपने पर लगाये गए इस आरोप का, इस झूठे लांछन को भी सह लिया, स्वीकार कर लिया । मैं मृत्यु से पहले इसका प्रायश्चित करना चाहती हूँ ।'
युवती के परिजन फिर संत हाकुइन के पास पहुँचे, सारी बात बताई - यथार्थ सुनाया । संत मुस्कुराये और कहा - 'ओह, तो ऐसी बात है, इट्स देट सो ! तुम अब क्या चाहते हो ? ' वे बोले-'हम चाहते हैं कि बालक को वापस ले जाएँ ।' संत ने कहा-' -'ओह, तो ऐसी बात है । ठीक है, ले जाओ ।' यह जीवन की साधना की परम स्थिति है । जहाँ अगर इलजाम भी लगा, तब भी आनंद, इलजाम वापस ले लिया गया तो भी आनंद — ओह, तो ऐसी बात है । जहाँ दोनों स्थितियों में समान आनंद का भाव बना रहा है, वहीं तो आदमी अभय-दशा में जीता है ।
जो आदमी यह सोचता है कि लोग क्या कहेंगे, समाज क्या कहेगा, वह आदमी अपने जीवन में समता और सामायिक को नहीं जी सकता। एक बहुत बड़े संत हुए - स्वामी आनंद, जिन्होंने हिन्दुस्तान में सबसे पहले 'नारी निकेतन' खोला, जहाँ उपेक्षित, लांछित, विधवा और निराश्रित महिलाओं को आश्रय दिया जाता था । एक बार एक नारी उनके पास आई और कहा – 'एक युवक के साथ मेरे प्रेम-संबंध थे । वह युवक मुझे छोड़कर भाग गया है । उसकी संतान मेरे पेट में
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है । मेरे पीछे और छ: बहिनें हैं। अगर उस युवक ने मुझे स्वीकार नहीं किया तो मेरी उन बहिनों की सगाई और शादी नहीं हो पाएगी। मेरा तो जो होगा, सो होगा, पर मेरी बदनामी मेरी बहिनों की ज़िंदगी तबाह कर देगी ।'
युवती की बात सुनकर स्वामी आनंद ने पूछा - 'तुम अब क्या चाहती हो ?' युवती का उत्तर था - ' -'मैं चाहती हूँ कि कोई भी युवक मुझसे विवाह कर ले ।' स्वामी आनंद ने अपने कई शिष्यों को समझाया, मगर कोई भी तैयार न हुआ । आखिर पूरे समाज में बात फैल गई । बात कचहरी और पुलिस तक पहुँची । तारीख आ गई और स्वामी आनंद उस युवती को आश्वासन दे चुके थे कि तुम्हारी लाज किसी तरह मैं बचाऊँगा, तुम कोर्ट में पहुँच जाना । अगले दिन कोर्ट में दोनों आमने-सामने थे। युवती ने कार्यवाही से पहले पूछा, 'महोदय, क्या कोई तैयार
लक्ष्य बनाएँ, पुरुषार्थ जगाएँ
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