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लिए 'अहिंसा परमो धर्म:' नहीं है । वह आदमी साधना को नहीं जी पाता जिसके जीवन में अभय-दशा उन्नत नहीं हुई है । साधना के द्वार पर तो यक्ष, किन्नर, देव, दानव और न जाने क्या-क्या, किन-किन के घोर परिषह, घोर उपद्रव आते हैं । भगवान महावीर पर केवल एक रात में बीस-बीस घोर उपसर्ग, घोर परिषह हुए थे ।
हम ज़रा अपनी साधना को, अपनी जीवन-शैली को, अपनी अहिंसा को कुछ ईमानदारी के साथ परखें । हमें पता चलेगा कि क्या हम किसी देव-दानव के दिये जाने वाले परिषह में कामयाब हो सकते हैं? एक चूहे से, एक छिपकली से भय पाने वाला आदमी क्या किसी यक्ष, किन्नर, देव, दानव, भूत-प्रेत के उपद्रव को सहन कर पाएगा? व्यक्ति जब लॉयन्स क्लब का सदस्य बनता है, तो लॉयन कहलाता है । सदस्य बनकर उसे स्वयं में छिपे हुए सिंहत्व को, पुरुषत्व को सार्थक करना होता है; मगर वह दीवार पर चलती हुई एक छिपकली से घबरा जाता है । वह आदमी ‘शेर की संतान' कहलाने का अधिकारी नहीं है, जो एक छोटे-से कीड़े से घबरा जाए ।
साधना का सोपान : अभय
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बहुत वर्षों पहले हमें हम्पी की कंदराओं में रहने का सौभाग्य मिला । वहाँ एक बहुत बड़े साधक हुए योगिराज सहजानंदघन । वे अपने पूर्व नाम से भद्रमुनि कहलाते थे । अब तो हम्पी में देशी-विदेशी पर्यटक दिन-रात पड़े ही रहते हैं, लेकिन मैं तो बात कर रहा हूँ पच्चीस-तीस साल पहले की । उस समय वे साधक अकेले ही वहाँ की कंदराओं में रहते थे । कोई भूला-भटका दर्शनार्थी ही उनके पास पहुँचता था । जब दस साल पहले हम हम्पी में थे, तो मैंने अपनी आँखों से वहाँ पर शेर, बाघ, साँप-बिच्छू देखे थे । ज़रा कल्पना कीजिए आज से पच्चीस-तीस साल पहले उस साधक ने कंदराओं में कैसे साधना की होगी ? ऐसी निर्भय दशा के, निर्भय चित्त के स्वामी को शायद ही मैंने देखा हो । मैं योगी सहजानंदघन की निर्भय चेतना से सहज ही प्रेरित - प्रभावित हुआ ।
मैं योगिराज शांतिविजय महाराज की भी निर्भय - दशा की अनुमोदना करूँगा । मुझे उनकी गुफाओं में भी जाने और रहने का अवसर मिला । व्यक्ति कोई भी क्यों न हो, ऐसे अभय चेतनाशील पुरुष ही सफलताओं की मीनारों को छू सकते
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लक्ष्य बनाएँ, पुरुषार्थ जगाएँ
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