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तुम्हारी साधना अमृत साधना बन गई। अगर ऐसा होता रहा तो साधक तुम्हें दुनिया की कोई भी ताकत विचलित न कर पाएगी। दुनिया का कोई भी अपमान विचलित न कर पाएगा। दुनिया के द्वारा दिया हुआ कोई भी प्रतिकार तुम्हें खंडित न कर पाएगा क्योंकि जो खंडित होता है वह मर चुका होगा और जो अखंडित रहता है वह अमर हो चुका होगा।
अपने भीतर, अपने संकल्प को ग्रहण करते हुए, यह जानें कि मैं आज के बाद अपने स्वभाव में रहने वाली वह विकृति, अपनी प्रकृति में रहने वाली वह विकृति, वह कमी मैं जीतूंगा, जीतूंगा, जीतूंगा। यह सम्भव नहीं होने दूंगा कि मेरी वह विकृति, मेरी वह कमी, मेरा वह अवगुण मुझे हरा जाए। मैं पशु नहीं कि कोई मेरे गले में फंदा डाले,
और मुझे अपनी तरफ खींचता चला जाए। मैं मनुष्य हूँ, जो अपने पाप को, अपने बंधन को, अपनी फाँस को, निकाल कर बाहर फेंक सकता हूँ। पुरुषार्थ की जरूरत यहीं पर है। यहीं पर चाहिए आत्म-पुरुषार्थ, तुम्हारा क्षात्रत्व, तुम्हारी ओजस्विता कि तुम अपनी कमियों को जीत सको । जीतोगे तो तुम ही जीतोगे, कोई और नहीं जीतेगा। मेरी कमियों को मैं जीतूंगा और तुम्हारी कमियों को तुम जीतोगे। मेरे स्वभाव पर मैं विजय प्राप्त करूँगा। तुम्हारे स्वभाव पर तुम विजय प्राप्त करो।
हारना और जीतना दोनों साधक पर निर्भर करते हैं। हारा हुआ इंसान हारे हुए जुआरी की तरह घर लौटकर नहीं जाता। जुआरी जब भी घर पहुँचता है तो जीत कर पहुँचता है। हम यहाँ से घर पहुँचे तो एक जीते हुए साधक की तरह। अपने घर पहुंचे तो घर भी हमसे प्रेरणा पाए। अपने मुँह से शेखी न बघारें। हमारा जीवन ही दूसरों के लिए प्रेरणा और उदाहरण बन जाए। हम स्वयं अपने जीवन के संत
बनें।
हम ध्यान को तन्मयता से जीएँ। ज्यों-ज्यों ध्यान में हम एक
स्वभाव सुधारें , सफलता पाएँ
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