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________________ पड़ती है, न ही पलायन। __लोग शांति की प्राप्ति के लिए न जाने कितने तीर्थ-धाम कर आते हैं और कितनों को ही गुरु बनाते फिरते हैं । मन की शांति का संबंध किसी स्थान या व्यक्ति विशेष से नहीं है । शांति का संबंध व्यक्ति का अपने आप से है, स्वयं के मन को समझने और समझाने से है । किसी अरबपति व्यक्ति को यदि तुम उसके मन की शांति प्रदान कर दो, तो तुम्हें मुँह-मांगा इनाम मिल सकता है, क्योंकि एक अतिसंपन्न व्यक्ति ही इस बात का मूल्य पहचानता है कि मन की शांति की कितनी अनूठी कीमत है । मन की शांति वह बेशकीमती चीज है, जिसके आगे हजारों जवाहरात की कीमत नगण्य है। दो दीप, दो मंत्र मन की शांति के लिए हम जीवन में दो कीमिया का उपयोग कर सकते हैं, जिनमें पहला है सहजता और दूसरा है—निमित्तों से प्रभावित न होना, प्रतिक्रियाओं से मुक्त रहना । मैं इन दो बातों को जीवन में शांति के दो मूल मंत्र कहँगा । जैसे रात के अंधेरे में राह पर चलने के लिए कंदील सहायक होता है, ऐसे ही ये दो बातें शांति की साधना के लिए जीवन-पथ के दो दीयों का काम करती हैं। आत्मसात हो जाए सहजता पहला मंत्र है-सहजता । जीवन में जो होना है, वह हो ले । उतार-चढ़ाव, हानि-लाभ, सुख-दुःख, संयोग-वियोग–ये सब तो जीवन से जुड़े हुए सनातन धर्म हैं। समय का स्वरूप सदा परिवर्तनशील रहा है । जिसने इस परिवर्तन-धर्म को समझ लिया, वह हर परिस्थिति में अपनी सहजता को बरकरार रख सकेगा । कृत्रिमता और कटिलता भला कौन-सा सुख देती है ? जो सौंदर्य होंठों के सहज गुलाबीपन में छिपा होता है, वह लिपस्टिक की कृत्रिमता में कहाँ है ! हमारी कृत्रिम हंसी हमें बेवकूफ ही सिद्ध करेगी, वहीं हमारी सहज मुस्कान हमारे व्यक्तित्व के आकर्षण का केंद्र बन जाएगी। ज्यादा बन-ठनकर रहना, अपनी बात को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना कोढ़ के रोग पर कोट-पतलून पहनना है । जैसे छिपाकर रखा गया कोढ़ कभी-न-कभी तो प्रकट होता ही है, क्या यही हश्र कुटिलता और कृत्रिमता का नहीं होगा? ____ जीवन में सुख-शांति का स्वामी होना है, तो हम जीवन को बड़ी सहजता से लें। जीवन के हर कार्य की प्रस्तुति बड़ी सहजता से हो। औरों के द्वारा की जाने वाली हर टिप्पणी को हम बड़ी सहजता से लें । आत्मवान पुरुष वही है, जो किसी के द्वारा की गई ७० ऐसे जिएँ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003895
Book TitleAise Jiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2001
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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