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________________ अपने जीवन-धन को खर्च कर रहे हैं । मनुष्य आखिर कितना भी क्यों न बटोर ले, उसे धरती पर ही छोड़कर जाना है। फिर क्यों न हम उदार-भाव से अपने हाथों अपने धन का उपयोग करें; परिजन और आम जन का हित साधें । केवल अपने निजी स्वार्थों को पोषित करते रहना आदमी का अंधापन है । ओह, जहां बहुत बड़ा है । हर किसी को आपके स्नेह और उदारता की जरूरत है । आपको लगता है कि आपके स्वभाव में क्रोध और चिड़चिड़ापन है, तो आप उसे त्याग करके हृदय में शांति और धैर्य को स्थान दें । अपने जीवन में इस त्याग को जीने के लिए हमें कुवचन, कुविचार और कुकृत्यों का त्याग करना होगा; गाली-गलौच, आक्षेप-प्रत्याक्षेप, वाद-प्रतिवाद और दुर्व्यवहारों से परहेज रखना होगा; हमें किसी के द्वारा किये जाने वाले अपकार के बदले में भी प्रेम और सद्भावना की रसधार बहानी होगी । हमेशा पानी ही आग को बुझाता है, आग, आग को नहीं । आपका क्रोध आपके जीवन का प्रबल मानसिक विकार है । अपने उग्र और क्रोधी स्वभाव के कारण ही समर्पित और सेवानिष्ठ लक्ष्मण सबके प्रेम और सहानुभूति का पात्र न बन सका । हम यह तो सोचें कि हमें क्रोध से मिलता क्या है, सिवा तनाव, असंतुलन और अविवेक के ? आओ, अब हम हर रोज ऐसा उपवास करें कि जिसमें भोजन तो हो, पर क्रोध नहीं । मैं आने वाले चौबीस घंटों के लिए क्रोध नहीं करूँगा, यह संकल्प आपके जीवन को तपोमय बना देगा, आपको उपवास का फल मिल जाएगा। क्या आपको लगता है कि जीवन में आपका कोई शत्रु है; आपको किसी से नफरत है ? यदि हाँ, तो कृपया अपने मन में पलने वाले वैर और द्वेष के भाव को दूर करें। माना कि हम सत्य के लिए सलीब पर नहीं चढ़ सकते, लेकिन किसी की गलती को माफ करने की करुणा तो दर्शा ही सकते हैं । हम प्रेम की पवित्र वेदी पर द्वेष और घृणा का त्याग करें । आपका यह छोटा-सा त्याग आपके जीवन का महान् बलिदान बन जाएगा । आप स्वयं तो सुखी होंगे ही, उन्हें भी आपके सुख का सुकून मिलेगा जिनसे कि हम अब तक जलते और कटते रहे, जिनके पतन में रस लेते रहे । बुराई त्यागें, भलाई सहेजे आनंदमय जीवन का स्वामी बनने के लिए हम अपने अहम् और दम्भ का भी त्याग करें । अरे, दुनिया में किसकी अकड़ रही है ! सब परिवर्तनशील हैं । राजा, रंक ५२ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ऐसे जिएँ www.jainelibrary.org
SR No.003895
Book TitleAise Jiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2001
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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