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________________ व्यर्थ नहीं जाने वाला । चाहे हमारे विचार हों या व्यवहार, काम हो या निर्माण, वे आज नहीं तो कल, तेजी से लौट आने वाले हैं। स्वयं के स्वस्थ, सफल और मधुर जीवन के लिए हमारे हर कार्य की शुरुआत स्वस्थ हो, सही हो, स्वस्तिकर हो । इसी तरह उसका मध्य और अंतिम परिणाम भी उसी के अनुरूप हो । हमारी वाणी सही हो; शरीर के द्वारा होने वाला कर्म और आजीविका सम्यक् हो; हमारा हर अभ्यास और व्यापार सही हो। जीवन और जगत के प्रति हमारा हर भाव और दृष्टिकोण शुद्ध और स्वार्थरहित हो; हम अपने हर कर्म को करने से पहले विवेकपूर्वक यह जाँच लें कि इससे मेरा अथवा किसी अन्य का बुरा तो नहीं हो रहा है । हम वही कार्य संपादित करें जिससे स्वयं का भी भला हो और औरों का भी; खुद सुख से जीएँ और औरों को सुख से जीने का अधिकार दें, इसी से स्वयं का और सबके जीवन का मांगल्य सधता है। कर्म तेरे अच्छे हैं, तो किस्मत तेरी दासी। नीयत तेरी साफ है, तो घर में मथुरा-काशी ।। नेक कर्म और साफ नीयत—जीवन का मांगल्य साधने के ये दो आधार सूत्र है। सबके श्रेय और मांगल्य में स्वयं का कल्याण स्वतः समाहित है। पलायन की प्रवृत्ति न पालें ____ मुझे अपने आप से प्यार है । जितना स्वयं से है, उतना ही आप से । न मैं स्वयं को दुःखी और कष्टानुभूति में देखना चाहता हूँ और न ही किसी और को । मैं स्वयं भी स्वस्थ, सुंदर और स्वस्तिकर जीवन में विश्वास रखता हूँ और अपने द्वारा सबके प्रति वैसा ही व्यवहार करता हूँ । मैं मानकर चलता हूँ कि मुझे स्वप्न में भी ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए, जिससे किसी का अहित हो । चूँकि मैं स्वयं का हित चाहता हूँ इसीलिए किसी और का अहित नहीं कर सकता । हाँ, यदि हमारे जीवन में हमें किसी बाधा या किसी कठिनाई का सामना करना पड़ता है, तो हमें इसके लिए या तो सहर्ष या समत्व भावना के साथ स्वयं को प्रस्तुत करना चाहिए, क्योंकि आज जो हमारे साथ हो रहा है उससे पलायन कैसा ! वह तो सौगात है हमारे अपने ही कृत्य की । हमारे साथ जो होना है, ए 5 बार उसे हो ही जाने दें । आखिर कोई भी बादल तभी तक तो गरजेगा जब तक उसमें पानी का भार होगा। . किसी भी कटु बात या विपदा को सहन करने से स्वयं के गौरव और मूल्यों की छीजत नहीं होती, उल्टी बढ़ोतरी ही होती है । किसी ने गुस्सा किया और हम भी जवाब बोएँ वही जो फलदायी हो १७ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003895
Book TitleAise Jiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2001
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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