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________________ करना पड़ेगा । भोजन उतना हो, और वह हो जो हमें स्वास्थ्य और स्फूर्ति प्रदान करे । अधिक गरम और गरिष्ठ भोजन करने से वीर्यस्राव रजस्राव हो जाएगा । आखिर शरीर तो उतने ही आहार की शक्ति ग्रहण करेगा, जितनी की उसे अपेक्षा है । वह भोजन घातक है, जो उत्तेजना जगाए या प्रमाद पैदा करे । थोड़ा-सा व्यायाम भी यदि स्वस्थ भोजन करने के बावजूद शरीर में कमजोरी रहती है, शक्ति शिथिल रहती है, तो इसका अर्थ है कि शरीर के ऊर्जा स्रोतों में कहीं कोई रुकावट आई है । तब हमें किसी स्वास्थ्य-चिकित्सक से अवश्य सलाह लेनी चाहिए। भोजन की सात्विकता के साथ हमें शरीर के विभिन्न अवयवों के स्वस्थ संतुलन हेतु थोड़ा-बहुत व्यायाम भी अवश्य करना चाहिए । इसके लिए हमें सूर्योदय से पहले दो किलोमीटर तक लंबी सांस लेते हुए टहल लेना चाहिए अथवा सुबह दस-पंद्रह मिनट तक कुछ योगासन कर लेने चाहिए। यदि समय और स्थान की सुविधा न हो, तो एक ही जगह पर दो-तीन मिनट की जॉगिंग / स्थिर-दौड़ कर लेनी हितावह है। इससे हमारे शरीर के जीवित कोष्ठ सक्रिय होते हैं, शरीर की जो कोशिकाएँ सुप्त या शिथिल पड़ी हैं, वे भी सक्रिय होकर हमारे लिए सहभागी बन जाती हैं I हम अपने किसी भी कार्य को करने से पहले उसके बारे में थोड़ा-सा मनन कर लें । सोच-समझकर किया गया कार्य हमेशा वांछित परिणाम देता है। बिना सोचे-समझे किये गये कार्य पर अन्ततः पछताना पड़ता है । हर कार्य को उत्साह से करना चाहिए, पर इसका मतलब यह नहीं कि उसे जल्दबाजी में निपटाने की कोशिश की जाए । बुद्धिमान पुरुष काम करने से पहले सोचता है; समझदार व्यक्ति काम करते समय सोचता है, मूर्ख काम करने के बाद । भला जब प्रकृति ने हमें श्रेष्ठ बुद्धि प्रदान की है, तो क्यों न हम बुद्धिपूर्वक ही हर कार्य को संपादित करें । न उलझें लालसाओं में हम व्यर्थ की लालसाओं में भी न उलझें । आवश्यकताओं के अनुसार सभी कुछ संजोया जाता है, लेकिन आवश्यकता से अधिक किसी भी चीज की व्यवस्था करना जहाँ सामाजिक अपराध तो है ही, वहीं उसे संभालने - सजाने और उसकी सुरक्षा की अनावश्यक सरपच्ची करनी पड़ती है । हमारे पास अगर जरूरत से ज्यादा है, तो उसे जरूरतमंद लोगों को प्रदान कर दें । आवश्यक सब कुछ हो, अतिरिक्त कुछ नहीं - अपने मधुर जीवन के मूल मंत्र Jain Educationa International For Personal and Private Use Only ११ www.jainelibrary.org
SR No.003895
Book TitleAise Jiye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2001
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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