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जाता था। स्कूल पहुँचता तो पता चलता कि पेन्सिल नहीं है । इस समस्या से निजात पाने का उसने एक तरीका निकाला। उसने दो अलग-अलग बस्ते तैयार किए - एक बस्ता घर का और दूसरा बस्ता स्कूल का । दोनों में अलग किताबें, अलग कॉपियाँ और अलग ही पेंसिल- रबर आदि रखे। अब वह स्कूल की पेंसिल स्कूल में और घर की पेंसिल घर में इस्तेमाल करता ।
कुछ दिन बीते । एक दिन वह स्कूल से घर आया तो पाया कि उसकी घर वाली पेंसिल नहीं मिल रही है। उसने बहुत ढूंढा, लेकिन पेंसिल नहीं मिली । उसकी मम्मी ने उससे पूछा- बेटे, तू घंटे भर से कुछ खोज रहा है। आखिर खोज क्या रहा है ? बेटे ने जवाब दिया- माँ, घर वाली .! माँ हैरान कि घरवाली? यह आरोपित सम्बन्ध है । इसी प्रकार के न जाने कितने सम्बन्धों के ढेर हमने लगा लिए हैं और उनसे मोह कर बैठे हैं । सम्बन्ध हैं कोई बात नहीं, लेकिन उनके प्रति रहने वाले राग ने हमारी चेतना को गर्त में डाल दिया है । अपने मौलिक अस्तित्व को नहीं पहचान पा रही है I
प्रकृति की ओर से व्यक्ति का पहला अभिशाप या वरदान उसकी मौत के रूप में मिला। जिस तरह तुम धरती पर आए हो, उसी तरह तुम्हें धरती से वापस जाना ही पड़ेगा। हम सभी इस मौत की 'क्यू' में खड़े हैं। किसी का आज नंबर लग गया है और किसी का कल आएगा । और जो अपनी चेतना के अस्तित्व को जान गया, उसने यह भी जाना कि सौ बार जन्म और मृत्यु के मध्य से गुजर जाने के बाद भी एक ऐसा तत्त्व अवश्य विद्यमान है जो न जलता है, न मरता है, न कटता है । वह तो शाश्वत है, चिरंतन है, अजर है, अमर है।
रूप बने, बन-बन मिटे, चिता सजी सौ बार । जन्म-जन्म के योग को दोहराया हर बार ।।
हमारा जीवन केवल दोहराव है, पुनरावृत्ति है। बोध अब भी नहीं है, सो पुनरावृत्ति के दौर जारी रहेंगे। चिता तक की यात्रा होती रहेगी। रूप बनते रहेंगे, मिटते रहेंगे और इस तरह हम भी बनते - मिटते रहेंगे। उत्पत्ति और विनाश से मुक्त होने के लिए ध्रुवत्व की ओर कदम उठाएँ, ध्रुवत्व की ओर आँख खोलें । आँखों में बसे ध्रुवत्व का नूर, आँख खुले ध्रुवत्व के प्रकाश में।
संबोधि-सूत्र का अगला चरण है
संबोधि से टूटती, भव-भव की जंजीर । जरा झांककर देख लो, अन्तर में महावीर । ।
90 :: महागुहा की चेतना
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