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________________ संसार की तमाम ध्यान-विधियों का सार यही है कि व्यक्ति आत्म-भाव में आ जाए, परभाव से मुक्त हो जाए। अगर ऐसा हो जाए तो जानना कि तुम्हारे भीतर एक सहज प्रभात का उदय हो गया। बाहर का सूर्य तो हर सांझ अस्त हो जाता है, लेकिन भीतर अगर सूर्योदय हो गया है, तो उसका परिणाम यह होगा कि फिर कभी अंधेरा न होगा। बाहर की भोर, बाहर का अंधेरा दोनों क्षणभंगुर है, लेकिन भीतर की ओर अगर एक दफा उजाला हो गया, तो जिंदगी में कभी स्याह रात नहीं आएगी। समझे वृत्ति-स्वभाव जो, साक्षी-भाव के साथ। तो समझो होने लगा, उर में सहज प्रभात।। मुक्ति का एकमात्र सूत्र है-साक्षित्व का उदय। मुक्ति की एक मात्र बाधा है-वृत्ति का अवरोध। तुम्हें मुक्ति चाहिए, तो वृत्तियों को जीतो, वृत्तियों से छुटकारा पाओ; तुम स्वयं को मुक्त ही पाओगे। वृत्ति ही भवभ्रमण का आधार है, वृत्ति ही मुक्ति की बाधा है। साक्षित्व चाहिए वृत्ति से मुक्ति के लिए रोशनी चाहिए तमस को हटाने के लिए। अगला चरण है रूप बने बन-बन मिटे, चिता सजी सौ बार। जन्म-जन्म के योग को, दोहराया हर बार ।। यह तुम्हारी आत्मा की आत्मकथा है। तुम्हारी सौ-सौ दफा चिताएँ सजी, बार-बार नए-नए रूप बनते रहे। सोने की तरह तुम्हारी काया रूप बदलती रही, कभी सोने से गले का हार बनाया जाता है, कभी वह हाथ की चूड़ी बनता है और कभी पाँव की पायल। फिर भी स्वर्ण तो स्वर्ण ही रहता है। इसी तरह तुम्हारी चेतना सौ-सौ दफा जन्म-मरण के योग से गुजर जाने के बावजूद शाश्वत बनी रहती है। एक कुंभकार एक ही मिट्टी से घड़ा, दीपक, हंडिया और न जाने क्या-क्या बना लेता है। मिट्टी सबमें एक ही है, लेकिन रूप सब में अलगअलग। आकारों में अलग-अलग ढंग से उसके अलग-अलग रूप निर्मित किए जाते रहे। अगर बाहर के रूपों को गिरा दिया जाए, तो फिर आत्मा ही शेष रहेगी और आत्मा, आत्मा में कोई विभेद नहीं होता। ___ संसार में रहते हुए व्यक्ति सम्मोहन से घिरा रहता है। कभी किसी से सम्बन्ध जोड़ता है और कभी किसी से सम्बन्ध तोड़ता है। ये सारे के सारे सम्बन्ध ऊपरी तौर पर स्थापित सम्बन्ध हैं। अगर इन सम्बन्धों के मूल में कुछ खोजोगे तो कुछ भी हाथ लगने वाला नहीं है। मुझे याद है एक बच्चा जो स्कूल में पढ़ने के लिए जाता था, जाते समय रोजाना पेन्सिल ले जाना भूल साक्षी-भाव : ध्यान का आधार : : 89 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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