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जब संसार से जुड़ती हैं तो जीवन में संसार का निर्माण होता है और जब चित्त की भावदशाएँ संसार से टूटती हैं, संसार से विलग होती हैं तब जीवन में समाधि घटित होती है। समाधि और संन्यास मात्र बाह्य रूपान्तरण नहीं है। इनकी उपलब्धि तुम्हारी अन्तरवृत्ति के विशोधन या उसकी कलुषता पर निर्भर है। जितने सहज, सरल और निर्मल होते जाओगे, संन्यास और समाधि के उतने ही निकट होंगे, लेकिन अन्तवृत्ति की कलुषता अधिकाधिक संसार में ले जाएगी। ___ अगर कोई व्यक्ति यह समझे कि सफेद कपड़े पहन लेने से या शरीर पर भभूत रमा लेने से साधुता घटित हो जाएगी, तो यह सोचना बेबुनियाद है। अगर आप बाह्य वेश देखकर प्रणाम करते हैं, तो मैं कहूँगा कि मुझे ऐसे प्रणाम की कोई अपेक्षा नहीं है। उन प्रणामों का, नमन या नमस्कार का कोई तात्पर्य नहीं है। तुम्हारा वह प्रणाम भौतिक होगा, क्योंकि ये कपड़े, वेश-बाने जड़ हैं, जिनमें कोई चेतना नहीं है।
पहला चरण यही कहता है कि तुम अपनी वृत्तियों को बारीकी से देखो। देखो कि कौनसी वृत्ति आ रही है, कौनसी वृत्ति जा रही है। कौनसी वृत्ति शुभ है, कौनसी वृत्ति अशुभ है; कौनसी वृत्ति कल्याणकारी है और कौनसी वृत्ति तुम्हें गर्त में धकेल रही है। तुम्हारा मस्तिष्क अनर्गल विचारों का घर है। इसलिए तुम न शांति पा रहे हो, न आनन्द और न सहजता उपलब्ध कर पा रहे हो। तुम्हारा मस्तिष्क एक कचरा पेटी रह गया है, जो आया, सो उस पेटी में डालते गए। यह जानने की कोशिश नहीं की कि कौनसा विचार तुम्हारी साधना में सहायक है और कौनसा विचार तुम्हें विनाश की पगडंडी की ओर ले जा रहा है। __भगवान महावीर ने शब्द दिया-प्रेक्षाभाव । बुद्ध ने उसे कहा-विपश्यना यानी अपनी श्वास में उतरकर, भीतर प्राणधारा में उतरकर एक-एक वृत्ति को निहारना और उससे अपने को अलग कर लेना। अपनी हर आती-जाती श्वास का निरीक्षण करना। श्वास के प्रति इतनी जागरूकता आ जाए कि फिर कोई भी श्वास तुम्हारी साक्षी के बिना न हो सकेगी। श्वास के प्रति यह सजगता जीवन के हर क्षण के प्रति सजगता बन जाएगी। तुम देखते रहोगे और विस्मित हो जाओगे कि तुम्हारा धैर्य पनप रहा है। तब तुम क्रोध नहीं कर पाओगे, . क्यों ? क्योंकि जब तुम क्रोध में होते हो तुम्हारी श्वास और ही ढंग से चलने लगती है। और श्वास के प्रति रहने वाला साक्षी तुरंत तुम्हें सचेत कर देगी। तब तुम क्रोध कैसे कर पाओगे। तुम साक्षी के भी साक्षी हो जाओगे।।
88 : : महागुहा की चेतना
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