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________________ पुंज को उपलब्ध करने के लिए हमें अंधकार से गुजरना पड़ेगा। जो व्यक्ति अंधकार से भयभीत नहीं होगा, वही व्यक्ति प्रकाश के करीब पहुँच पाएगा। ___संबोधि-सूत्र के आज के पद हमें अपनी तृप्ति को समझने, साक्षी-भाव से गुजरने का बोध दे रहे हैं। ये हमें जीवन का संदेश दे रहे हैं कि बार-बार जन्म लेने और चिता में जलने के बावजूद चेतना यथावत है। वह शाश्वत और चिरंतन है। हमारे यहाँ पुनर्जन्म की कल्पना है और उसके गलत अर्थ लगा लिए गए। हम सब आलसी हो गये। सोचते हैं अरे इस जन्म में तो भोग कर लिया जाए, अगले जन्म में धर्म कर लेंगे। हम इसी को बार-बार दोहराते चले गये और पुनर्जन्म की परिकल्पना थी कि तुम बार-बार इसी तरह जीते-मरते रहोगे आखिर इस चक्र से ऊबते नहीं हो। अब तो जानो, अब तो समझो और इस पुनर्जन्म से छुटकारा पाओ। और यह छुटकारा मिलता है स्वयं के अन्तर्जगत में प्रवेश करने से। संबोधि-सूत्र के आज के पद हमें अपनी वृत्ति को समझने, साक्षी भाव से गुजरने का बोध दे रहे हैं। ये हमें जीवन का संदेश दे रहे हैं। पद है समझे वृत्ति स्वभाव जो, साक्षी-भाव के साथ। तो समझो होने लगा, उर में सहज प्रभात।। रूप बने बन-बन मिटे, चिता सजी सौ बार। जन्म-जन्म के योग को, दोहराया हर बार ।। संबोधि से टूटती, भव-भव की जंजीर। जरा झांक कर देख लो, अंतर में महावीर।। अगर व्यक्ति साक्षी-भाव को ग्रहण कर ले और अपने मन में उठने वाली उधेड़बुन को, भीतर की उठापटक को साक्षी-भाव से निहारने की कोशिश करे, तो व्यक्ति अन्तस की समाधि को उपलब्ध कर सकेगा। परिणामतः उस प्रभाव से व्यक्ति अपने भीतर पलने वाली वृत्तियों को धीरे-धीरे शांत और सहज कर लेगा। मेरे प्रभु, ध्यान रखिएगा कि ध्यान कोई कृत्य नहीं है। ध्यान हमारा स्वभाव है। यह तो देह, मन और विचारों की क्रिया से शून्य होना है। ध्यान का लक्ष्य है कि व्यक्ति अपनी वृत्तियों से मुक्त हो जाए, अपने देह-भाव से मुक्त हो जाए। तुम्हारी आत्मा का स्वभाव कोई भाषा, देश या जाति नहीं है। तुम्हारी आत्मा का स्वभाव विशुद्ध, निर्मल अध्यात्ममय चेतना है। तुम्हारी चेतना का यह परम स्वभाव है कि वह अविनाशी है, चैतन्यरूप, ज्योतिस्वरूप है। ध्यान का मूल कृत्य है कि वह तुम्हें मूल स्वभाव में ले आए। तुम्हारे चित्त की भावदशाएँ साक्षी-भाव : ध्यान का आधार : : 87 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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