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प्रश्न किया गया कि मनुष्य की जो भव-भव की शृंखलाएँ हैं, उनको तोड़ने का उपाय क्या है ? तो जवाब आया कि 'संबोधि से टूटती, भव-भव की जंजीर। संबोधि यानी सम्यक् दृष्टि। जो चेतना आत्मबोधि को उपलब्ध हो चुकी है, जिसने यह पहचान लिया है कि शरीर अलग है, चेतना अलग है, जो देह में रहते हुए देहातीत भाव को जी रहा है, वह व्यक्ति संबोधि की सुवास उपलब्ध कर पाता है। जिसने सम्यक् दृष्टि पा ली, अंधेरे से मुक्ति की ओर बढ़ गया। क्या सूर्य के सामने कभी अंधकार टिक पाया है ?
कहते हैं कि एक दफा भगवान विष्णु ने सूर्य को बुलाया और कहा–सूर्यदेव, अंधकार तुमसे बहुत नाराज है। तुम अंधकार की तरफ ध्यान क्यों नहीं देते। सूर्य ने कहा-प्रभु, मैं तो किसी को नाराज नहीं करता। ऐसा करें कि अंधकार को मेरे सामने बुलाएँ, मैं उससे माफी मांग लूं। भगवान विष्णु ने कहा-सूर्यदेव, यह सम्भव नहीं है कि अंधकार आपके सामने आए। सूर्य ने कहा-तब मैं क्या समाधान बताऊं? जिस दिन अन्तस् में सूर्योदय हो गया, उस दिन सारा अंधकार स्वयंमेव तिरोहित हो जाएगा, अंधकार तुम्हारे इर्द-गिर्द मंडरा भी नहीं पाएगा।
तुम जरा भीतर उतरकर देखो, भीतर को टटोलकर देखो, तो तुम्हें पता लगे कि जिस दिव्यता की तलाश तुम पूरे ब्रह्माण्ड में कर रहे हो, वह तुम्हारे भीतर ही विद्यमान है।
अगर तुम खोजो तो वह तुम्हें तुरंत मिल सकता है। तुम उसे कहाँ-कहाँ खोज रहे हो। वह तो तुम्हारी हर सांस में मौजूद है, तुम्हारे रोम-रोम में, तुम्हारे अस्तित्व में विचर रहा है। अपनी एक-एक वृत्ति, एक-एक ग्रंथि को पहचानो और साक्षी-भाव से उससे मुक्त होने की कोशिश करो। जो व्यक्ति तटस्थ-भाव में उतरता है, वह व्यक्ति आत्मज्ञ हो जाता है। संबोधि को उपलब्ध कर लेता है, भव-भव की जंजीरों से मुक्त हो जाता है। संबोधि ही वह साधन है, सम्यक् बोध, सम्पूर्ण बोध ही वह आधार है, जिससे टूटती है भव-भव की जंजीर, अन्तर्मन की ग्रन्थियाँ। संबोधि के प्रकाश में ही आदमी जानता है कि महावीर स्वयं समाये हैं उसकी अपनी अन्तरात्मा में। महावीर किसी ठौर ठिकाने पर नहीं रहते, वे रहते हैं, घर-घर में, हर अन्तस् में। जरा झांक कर देख लो अन्तस् में महावीर । अन्तर्जगत में उतरने का, आने का निमन्त्रण है, दर-दर भटकती चेतना, दर-दर भटकती आत्मा, दर-दर भटकता पंछी लौटे अपने घर में, अन्तर के घर में, स्वयं के घर में। अपने मालिक हम आप हों।
साक्षी-भाव : ध्यान का आधार : : 91
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