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________________ प्रेम का विस्तार मैंने सुना है : एक सम्राट अपने रथ में बैठकर राजमार्ग से गुजर रहा था। सम्राट की नजर एक वृद्ध पर पड़ी जो अपने सिर पर गट्ठर रखे हुए पैदल चला जा रहा था। उस वृद्ध की कमर झुकी हुई थी, चेहरे पर झुर्रियाँ थीं, हाथ में एक डंडा पकड़े हुए वह धीरे-धीरे चल रहा था। सम्राट का रथ जब वृद्ध के पास से गुजरा, तो उसने रथ रुकवाया और वृद्ध से कहा-तुम पैदल क्यों चल रहे हो, तुम बहुत वृद्ध हो चुके हो, मेरे साथ रथ पर आकर बैठ जाओ। वृद्ध ने इंकार कर दिया। उसने कहा-सम्राट, मैं ठहरा एक गरीब आदमी। मैं आपके साथ रथ पर कैसे बैठ सकता हूँ ? सम्राट ने जब उससे अधिक ही आग्रह किया, तो वह सहमत हो गया और रथ में बैठ गया। सम्राट ने देखा कि वृद्ध व्यक्ति रथ पर तो बैठ गया, लेकिन सिर का गट्ठर सिर पर लिये बैठा है। सम्राट ने वृद्ध से कहा-तुमने इस गट्ठर को सिर पर क्यों रखा है ? इसे भी रथ पर क्यों नहीं रख देते ? वृद्ध ने कहा क्षमा करें महाराज ! मैं रथ पर बैठा हूँ, यही काफी है। मैं इस अतिरिक्त भार को रथ पर रखने की गुस्ताखी कैसे कर सकता हूँ ? सम्राट मुस्करा दिया। आज हर आदमी की स्थिति कुछ ऐसी ही है। सम्राट का रथ तो बैठने को मिल गया है, लेकिन सिर पर धरा गट्ठर का भार नीचे नहीं उतारता। सम्राट को निमंत्रण इसलिए है कि तुम कुछ सुस्ता सको। जीवन को निर्भार और स्वस्थ कर सको। आज हमारा मन ही कारागार बन गया है। और हम स्वयं उसमें कैद होकर रह गए हैं। एक मनुष्य के लिए बाहर के कारागार से मुक्त होना आसान है, लेकिन मन के बंधनों से मुक्त होना बहुत कठिन है। एक व्यक्ति जो लोहे 92 : : महागुहा की चेतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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