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की जंजीर से बंधा हुआ है तो हमें दिखाई पड़ेगा कि वह बंधन में बंधा है और दूसरा व्यक्ति जो सोने की श्रृंखला से आबद्ध है, उस व्यक्ति के लिए हम कहेंगे कि वह उसका श्रृंगार है लेकिन मन का कारागार बहुत सूक्ष्म है फिर वह स्वर्ण-पिंजर हो या लौह-शृंखला, हमारी चेतना उसमें बंधी हुई है, परतंत्र है। एक पक्षी भले ही मुक्त गगन में विहार करते हुए मुश्किल से दाना-पानी चुगे, फिर भी वह खुश है। इसके विपरीत एक स्वर्ण-पिंजरे में आबद्ध पक्षी को अगर रोज खाने को दाने मिल जाएं, तो भी वह पिंजरे में है, आबद्ध है। वह अपने पंख फैलाना चाहता है, मुक्त गगन में उड़ान भरना चाहता है।
मुझे तो यों लगता है कि मनुष्य की स्थिति भी हू-ब-हू वैसी ही है, जैसी उस पक्षी की, जो मुक्त गगन में उड़ान भरना चाहता है, लेकिन उसे पकड़कर पिंजरे में डाल दिया गया है। क्या हमने अपने अंतर्-अस्तित्व में यह तलाशने की कोशिश की है कि हमारी आत्मा कितने-कितने बंधनों से बंधी हुई है ? अगर यह तलाश कर पाए तो पाआगे कि व्यक्ति भले ही बाहर से उन्मुक्त दिखाई दे रहा है, लेकिन अन्तर्-व्यक्तित्व में अनेकानेक बंधन हैं। जो बाहर से लोहे के बंधनों से बंधा हुआ है, वह तो दिखाई दे रहा है, लेकिन क्या तुम जानते हो कि तुम्हारी चेतना कितने-कितने बंधनों से बंधी हुई है ? मनुष्य जन्म-जन्मांतरों से कितने ही बंधनों को साथ लेकर आता है। लेकिन जान नहीं पाता। स्थिति तब और भी विचारणीय हो जाती है, जब व्यक्ति बंधनों से ही राग कर बैठे।
कहते हैं : एक राजकुमार का राज्याभिषेक हुआ। उस खुशी में उसने राज्य के कैदखाने के सारे कैदियों को मुक्त कर दिया, लेकिन जब सांझ ढलने को आई, तो हालत यह हो गई कि जितने कैदी छोड़े गए थे, उनमें से अस्सी फीसदी सांझ को वापस आ गए। वे कैदखाने के द्वार पर धरना देकर ही बैठ गए कि हम तो कैदखाने में ही रहेंगे। सम्राट आश्चर्यचकित था कि मैंने तो इन्हें मुक्त किया है, लेकिन ये तो वापस आना चाहते हैं और तर्क भी दे रहे हैं कि हम तो इस कैदखाने में बरसों से रह रहे हैं, अब इससे अलग कैसे हो सकते हैं, यह तो हमारा घर है। यह ऐसी अवस्था है, जिसमें व्यक्ति को बंधन से भी राग हो चुका है। कारागार भी जिसके लिए महल हो चुके हैं। जंजीरों से भी राग ! ओह हमने जिसे सुख समझा, वही बंधन हो गया। बाहर के बंधनों से तो मुक्त भी हुआ जा सकता है, लेकिन भीतर के बंधन इतने गहरे हो गये हैं कि उन बंधनों से मुक्त हो पाना बहुत मुश्किल प्रतीत होता है। भले ही तुम बाह्य तौर पर वृद्ध दिखाई देते हो, लेकिन भीतर तो तरंगें अभी भी जीवित हैं। आचार्य शंकर अस्सी-नब्बे साल के वृद्ध को यही संदेश दे रहे हैं
प्रेम का विस्तार : : 93
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