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साक्षी-भाव : ध्यान का आधार
जिस व्यक्ति के नाम पर हम अपने देश को भारत कहते हैं, घटना उसी से सम्बद्ध है। कहते हैं कि सम्राट भरत एक दफा तीर्थंकर आदिनाथ की सन्निधि में थे। चर्चाएँ चल रही थीं। चर्चा के दौरान ही भरत ने अपने पिता आदिनाथ से पूछा कि प्रभु, मृत्यु के बाद मेरी गति क्या होगी? भगवान ने उसका भविष्य निहारा और कहने लगे-भरत, तुम्हारी मृत्यु के बाद गति नहीं होगी। तुम मुक्त हो जाओगे। भरत काफी प्रसन्न हुआ, लेकिन उसके पास बैठा हुआ व्यक्ति कहने लगा कि कमाल के भगवान हैं। उस भरत के लिए मोक्ष की बात करते हैं, जो अखिल विश्व का अधिपति है, चक्रवर्ती है, जिसके पास अपार सैन्यदल है, राजरानियाँ हैं, इतना आरम्भ-समारम्भ है! उसने खड़े होकर कहा-प्रभु, क्षमा करें। मुझे तो भरत को मोक्ष दिए जाने की बात उचित नहीं जान पड़ती।
धर्म-सभा समाप्त हुई, भरत अपने राजमहल में लौटकर आए। जैसे ही राजसभा प्रारम्भ हुई कि भरत ने सैनिकों को आदेश दिया कि जाओ, उस व्यक्ति को लाओ जो कह रहा था कि उसे भरत के मोक्ष पर संदेह है। मुझे उससे इस बात का स्पष्टीकरण चाहिए। सम्राट के आदेश पर सैनिक गए और उस व्यक्ति को पकड़कर ले आए। वह काफी घबराया हुआ था और मन-हीमन पश्चाताप कर रहा था कि कहाँ बैठे-बिठाए मुसीबत मोल ले ली। पता नहीं, सम्राट के मन में क्या आए और क्या आदेश दे बैठे। खैर, वह व्यक्ति राजसभा में पहँचा। सम्राट ने उससे कहा-आज नगर को सजाया गया है। मैं तुम्हारे हाथ में तेल से भरा कटोरा दे रहा हूँ। तुम नगर में घूमकर आओ और नगर के प्रमुख स्थलों की सजावट के बारे में विवरण दो। हाँ, एक बात ध्यान रखना
साक्षी-भाव : ध्यान का आधार :: 83
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