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सांस-सांस में रम जाए। परमात्मा है यह विश्वास तो कर लेते हो, लेकिन उसके प्रति श्रद्धा नहीं है । तुम्हारी श्रद्धा भी संशययुक्त है। तुम मंदिर जाते हो, भगवान के द्वार पर जाते हो, लेकिन अपने संशय मिटा नहीं पाते। तुम्हारे पुजारी कहते हैं कि तुम जितना मंदिर में चढ़ाओगे, सौ गुना वापस मिल जाएगा। यह भी व्यापार हो गया और अच्छा व्यापार । दुनिया में कोई ऐसा धंधा है कि एक लगाओ और सौ पाओ ? फिर भी जब तुम मंदिर जाते हो और जेब में हाथ डालते हो और सौ का नोट आया तो उसे दबा देते हो, सोचने लगते हो महाराज ने कहा तो था एक रुपये दोगे तो सौ मिलेंगे और अगर न मिले तो ये सौ भी पानी में चले जाएंगे। तुम्हारा संशय खड़ा हो जाता है तुम क्या करते हो, सभी जानते हैं। अगर पक्का विश्वास हो तो तुम बेखौफ डाल दो, लेकिन तुम्हारी श्रद्धा भी बदलती रहती है, तुम्हारा विश्वास डोलता रहता है। इसलिए कहा कि 'सांस-सांस विश्वास - परमात्मा के प्रति तुम्हारा विश्वास श्वास - श्वास में रमण करने लगे। जैसे बिना श्वास के तुम जीवित नहीं रह सकते, वैसे ही उस दिव्य चेतना के बिना तुम प्राणहीन हो जाओगे, जब यह भरोसा आता है तभी उस परमात्मा के प्रति श्रद्धा आती है ।
यदि श्रद्धा साथ नहीं है तो संशय में चाहे जो करो कुछ भी हाथ आने वाला नहीं है। अगर किसान यह सोचकर बीज न बोए कि बीज तो बो दूंगा, पर बरसात न आई तो ? पर नहीं, किसान को श्रद्धा रखनी होगी और बीज बोने होंगे।
अगली पंक्तियाँ-‘छाया दे संसार को, पर निस्पृह आकाश - जब तुम्हारा नया जन्म ही इस बात की सूचना है कि तुमने कुछ पाया है और यह नूतनता तुम्हें निस्पृह बनाती है। तुम सबके मध्य हो, पर सबसे परे । तुम्हारे संसार के साथ सम्बन्ध आकाश जैसे हो जाते हैं। आकाश पूरे भूतल पर छाया हुआ है लेकिन कहीं भी पृथ्वी से संयोजित नहीं है। कभी-कहीं आभास भी होता है कि शायद पृथ्वी को छू रहा है, लेकिन वहाँ जाकर तुम पाते हो कि नहीं, आकाश तो अपनी पूरी ऊँचाई पर है। वह पृथ्वी से दूर, बहुत दूर है। पृथ्वी को छाया दे रहा है, लेकिन कोई लगाव नहीं है। तुम भी पृथ्वी और आकाश के समान हो जाओ। तुम्हारा शरीर पृथ्वी है और चेतना आकाश है। दोनों बिल्कुल पृथक हैं | आत्मा चेतना को प्राणवत्ता दे रही है, चेतना शरीर को प्राणवत्ता दे रही है। जब शरीर और चेतना की पृथकता का बोध हो जाता है तभी ध्यान की गहरी भूमिका निर्मित होती है। और तब प्रतीति होती है- 'मुक्ति मानव मात्र का, जीवन का अधिकार ।'
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मुक्ति: प्राणिमात्र का अधिकार : : 81
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