________________
को टटोलते हो तो पाते हो कि चेतना की विशुद्धि किस मार्ग से प्राप्त होती है। हमारी गंगा उल्टी दिशा में बह रही है। हमें बताया गया है कि अध्यात्म का सम्बन्ध हमारे अन्तर्जगत से और संसार का सम्बन्ध हमारे बाह्य जगत से है, लेकिन क्या हम विपरीत दिशा में नहीं हैं ? हमने संसार को अन्तर्जगत से और अध्यात्म को बाह्य जगत से जोड़ लिया है। अब हम मझधार में लटक गये हैं। मन में अध्यात्म और हृदय में संसार । जबकि हृदय में अध्यात्म उतरे तो कुछ बात बने।
संबोधि-सूत्र का सार यही है कि हम हृदय में उतर जाएँ। संबोधि-सूत्रों की गहराई में जाने का भाव है कि तुम स्वयं की गहराई में उतर जाओ। ध्यान में उतरने का अर्थ है, स्वयं के भीतर उतरना। जब ध्यान की ओर पहला कदम बढ़ाया जाता है, उसे कृत्य के रूप में स्वीकारना होता है, लेकिन ध्यान कृत्य नहीं है, ध्यान में हर क्षण होना होता है। ध्यान स्वभाव में जीना है, स्वभाव में स्थित होना है। इसलिए ध्यान धारण करते हैं, तो हमारे अन्तर्मन का तमस बार-बार बाहर निकलकर आता है। इस तमस का शोधन ध्यान से होता है। संसार को पाने और भोगने की लालसा का तिरोहन ध्यान से होता है। तुम्हारी मनोवृत्ति संसार की ओर दौड़ती है, ध्यान में तुम देखते हो कि ये मनोवृत्तियाँ कैसी हैं और इनसे कैसे मुक्त हुआ जाए। संसार की कामना से कैसे अलग हुआ जाए। ध्यान में तुम जान पाओगे कि इन बुराइयों की बुराई कहाँ से होती है। माना कि बुराई है, लेकिन इन्हें बोया कहाँ से गया है, इसका बीजारोपण कहाँ से हुआ है। कहाँ तक इसकी जड़ें हैं, यह ध्यान के माध्यम से जाना जाता है। ठेठ अन्तर्मन तक, अन्तःस्तल तक जहाँ इसकी जड़ें गहरी हो गईं हैं, वहाँ से इन जड़ों को उखाड़ने का प्रयास ध्यान द्वारा किया जाता है। जब ध्यान उन जड़ों पर चोट करता है तो हम डांवाडोल होने लगते हैं। हम डर जाते हैं। सदियों के संस्कार की चूलें हिलती हैं, तो हम घबरा जाते हैं। हमने अपने हृदय पर इतने आवरण डाल दिए हैं कि एक परत के हटते ही हमारा मन उसे बचाना चाहता है। बुद्धि हृदय को दबाए रखती है। क्योंकि हृदयवान होते ही बुद्धि का जोर नहीं चलता और बुद्धि क्षीण होने लगती है। बुद्धि के पासे हृदय को फंसाए रखते हैं। लेकिन क्षमा, करुणा, प्रेम हृदय के भाव हैं और क्रोध मन का। क्रोध के पराजित होते ही मन सीमा में बंध जाता है और असहाय व्यक्ति की भांति भय का जाल रचता है, लेकिन ध्यान की गहराई इसी में है कि तुम जड़ों को काटते चले जाओ निशंक होकर। फिर बुद्धि और मन भी तुम्हारे सहयोगी हो जाएंगे। 74 : : महागुहा की चेतना
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org