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के नाम पर कुछ करते रहे, शील के नाम पर भी कुछ किया और तप के नाम पर देह का दण्डन भी करते रहे, लेकिन क्या ऐसा नहीं लग रहा है कि हमारी स्थिति भी उन लोगों जैसी है, जो बिना डोरी खोले रात भर पतवारें चलाते रहे। क्या हमने पाया कि हमने कुछ प्रगति की, कुछ विकास किया, कहीं पर पहुँच पाए? कहीं ऐसा तो नहीं जहाँ से यात्रा प्रारम्भ की, वहीं पर वापस पहुंच गए। आपने देखा होगा लोग हैल्थ-क्लबों में जाते हैं, शारीरिक व्यायाम करने के लिए। वहाँ पर 'स्टेण्ड साइकिलें भी होती हैं। पाँवों की जकड़न खोलने के लिए साइकिलिंग करवाते हैं। उन साइकिलों में किमी. का सूचकांक लगा होता है। आप पन्द्रह-बीस मिनट साइकिल चलाते हैं। दो-चार-दस किमी. दूरी सूचकांक पर आती है, पर जब आप साइकिल से उतरते हैं, तो वहीं होते हैं जहाँ से चढ़े थे।
अब हमारी दुविधा यह है कि हम खड़ी साइकिल पर पैडल मारते हैं। स्टैंड से साइकिल न उतारोगे, तो व्यायाम भर होगा, पहुँचना कहीं नहीं। मूर्छा का स्टैंड हटाओ, मूर्छा के लंगर खोलो।
हमारी स्थिति बिना अन्तरवृत्तियों के रूपान्तरण, बिना मनोवृत्तियों के रूपान्तरण और बिना चेतनागत संस्कारों के रूपान्तरण के वैसी ही है, जैसे बिना लंगर खोले नौका चलाना। इसी का परिणाम है कि शास्त्रों को, धार्मिक पुस्तकों को पढ़ने के बावजूद मनुष्य में कोई परिवर्तन नहीं आ पाता। मनुष्य पढ़-पढ़कर बुद्धि का विकास कर लेता है, लेकिन जीवन का विकास नहीं हो पाता। धर्म के नाम पर त्याग, यज्ञ-हवन, दान-दक्षिणा कर लेते हो, लेकिन कभी आत्म-चिंतन नहीं करते। उनसे पूछो कि तुम बाह्य रूप से जितने धार्मिक, आध्यात्मिक बने हुए हो, क्या आंतरिक रूप से भी इतने ही पवित्र और निर्मल हो ? जितने धवल वस्त्र हैं, क्या इतनी ही उज्ज्वलता उपार्जित की है ? दीर्घ तपस्याएँ कर लेते हो, फिर भी क्या भोजन के प्रति आसक्ति छुट पाती है ! तुम दान देकर भी धन के प्रति लोभ नहीं छोड़ पाते हो। जब तक तुम्हारे मन में पल रहे कलुषित संस्कार नहीं निकलते हैं, तब तक चाहे तुम तप करो या दान, सब व्यर्थ हैं।
घर, परिवार, मकान, दुकान को छोड़ वेश-परिवर्तन कर लेना अध्यात्म नहीं है। अध्यात्म है अन्तर्वृत्तियों का रूपान्तरण। तुम्हारी एषणा जो संसार और भौतिकता के प्रति है, उसके सम्मोहन से मुक्त होना अध्यात्म है। जब इस तरह अपनी अन्तरवृत्तियों को, अपने आंतरिक अंधकार को, अपने कलुषित कषाया
मुक्ति : प्राणिमात्र का अधिकार : : 73
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