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परिवर्तनधर्मा को ही शाश्वत मान लेता है। सच पूछो तो हमारी बुद्धिमत्ता भी हमारी भ्रांति ही है। जगत् तो बाहरी आँख का विस्तार है और परमात्म-तत्त्व अन्तर की आँख से दिखाई देता है। हमारी पाँचों इन्द्रियों की अनुभूति हमारे द्वारा निर्मित भ्रांतियों का जाल है, उन्हीं के साथ हमने तादात्म्य भी स्थापित कर लिया है। हमें इस जाल से, इस तादात्म्य से मुक्त होना है, तभी हम अपने चैतन्य छिपे परमात्म-तत्त्व से साक्षात्कार कर पाएंगे। अगर कोई कहे कि पृथ्वी के अन्तस्तल में पानी है और कहे कि दिखाओ, तो नहीं दिखाया जा सकता। पृथ्वी में छिपे हुए जल को देखने के लिए ऊपरी मिट्टी को, पत्थरों को हटाते हुए गहरी खुदाई करनी होती है। गहरे और गहरे जाकर ही पानी का स्रोत मिल पाएगा। ठीक ऐसे ही विचारों की मिट्टी, संस्कारों के पत्थरों को हटाते हुए मन की परतों को उधेड़ते हुए जब अन्तर्जगत में प्रवेश होता है, तब ही चेतना से मिलन हो पाता है। इस चेतना को पाने के लिए अपने आसपास एकत्रित मानसिक, दैहिक और जागतिक प्रवृत्तियों को हटाना होगा। संसार की सम्मोहन-शक्ति से मुक्त होना होगा।
हमारी चेतना तो कुएं के समान है, जो अपने अंदर ही शक्ति उपलब्ध करती है। कुएं में बाहर से पानी नहीं भरना पड़ता, अंदर ही झरता है। चेतना भी अन्तर्मुखी है और अन्तस् में ही उसके अस्तित्व का रहस्य है।
मेरे देखे तो जीवन जलती हुई गीली लकड़ी की तरह है जिसमें अग्नि कम और धुआँ अधिक है। मनुष्य अपनी वासना की, कषाय की, मानसिक संत्रास की आर्द्रता से घिरा हुआ है, जो अपनी पूर्ति के लिए धुआँता रहता है। रह-रहकर यह आर्द्रता, यह गीलापन मनुष्य को आंदोलित करता है और जीवन इसी की आपूर्ति के धुएँ से भरा रहता है। जब तक यह तृष्णा का धुआँ है तब तक जीवन जलती हुई ज्योति नहीं बन सकता। जीवन-ज्योति कैसे बन जाए? यह सिखाएगा ध्यान । ज्योति जगाने के लिए ध्यान का आलम्बन लेना होगा। ध्यान वह साधन है जो इस आर्द्रता को ऊष्मा प्रदान करता है और उसे सुखा देता है और तब जो उपलब्ध होता है वह है निधूम ज्योति। चेतना की ऊर्जा-अग्नि।
हमें यह भ्रांति दी गई है कि मुक्ति मिलने पर चेतना का दीया प्रज्ज्वलित हो जाता है। पूछा जाता है कि मुक्ति के पूर्व और मुक्ति के पश्चात् का फर्क क्या है, तब इस विशेष भ्रांति का निर्माण हुआ। जबकि सच्चाई यह है कि चेतना का दीया तो सदा से प्रज्ज्वलित है। हमारे प्राणों में संचार ही चेतना
सद्गुरु बांटे रोशनी :: 63
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