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योगी आनन्दघन श्मशान में साधना कर रहे थे। एक दिन एक व्यक्ति आया और उनके हाथ में एक बोतल थमाई। कहा, 'आपके मित्र फकीर इब्राहिम ने आपके लिए स्वर्ण - सिद्धि रसायन भेजा है। उन्होंने बारह वर्ष तक तपस्या करने के पश्चात् इस रसायन को प्राप्त किया है और इसका कुछ भाग उन्होंने आपको मित्रतावश भेजा है।'
पता नहीं क्यों, आनन्दघन ने बोतल ली और पास पड़े पत्थर पर इस कदर फेंक दी मानो वह पानी की बोतल हो । कुछ ही पल में जहाँ-जहाँ रसायन बहकर गया, वह स्थान स्वर्ण में रूपान्तरित हो गया ।
आगन्तुक आनन्दघन के इस व्यवहार से काफी क्षुब्ध हुआ। कहा, 'लोग आपको ज्ञानी कहते हैं, पर आप मुझे मूढ़ दिखाई देते हैं । आपने न केवल एक मित्र का अपमान किया है, बल्कि प्राप्त अमूल्य रसायन को ठुकराया भी है ।'
आनन्दघन के चेहरे पर पुनः मुस्कान उभर आई । वे कुछ दूरी पर गये, वहाँ पेशाब किया। जहाँ पेशाब किया वह स्थान सोने में रूपान्तरित हो गया ।
आगन्तुक ने दाँतों तले अंगुली दबा ली। आनन्दघन ने कहा, 'बन्धु ! इब्राहिम को जाकर कहना, जिस रसायन की सिद्धि के लिए उसने बारह वर्ष तक साधना की, काश ! वही साधना आत्म-सिद्धि के लिए करता । अगर ऐसा किया जाता तो वह उस सिद्धि के करीब होता, जहाँ सभी लौकिक सिद्धियाँ शर्म झुक जाती हैं।'
आनन्दघन जैसा साधक, उसके लिए साधना के द्वारा बाहर की उपलब्धियों का कोई मूल्य नहीं है, अगर मूल्य है तो भीतर के रसायन का है । अगर पत्थर को सोना बना भी लोगे अपनी किसी साधना की सिद्धि से तो आखिर वह सोना भी तो मिट्टी ही है। बीस साल साधना की और काली मिट्टी को चमकीली बना दी तो मानकर चलो कि तुम्हारी साधना चिन्मयता के लिए नहीं बल्कि मृण्मयता के लिए हुई ।
'जग जाना पर रह गए, खुद से ही अनजान।' बात महत्वपूर्ण है। भगवान बुद्ध जो 'अप्पदीवो भव' की प्रेरणा देते हैं उसके पीछे भी तो मूल लक्ष्य यही है कि व्यक्ति आत्म-बोध को उपलब्ध करे, अपना दीप स्वयं बन जाए। मंदिरों के दीप कभी बुझ भी जाते हैं और मस्जिद के फानूस भी । लेकिन भीतर के दीप को तो दुनिया की कोई शक्ति नहीं बुझा सकती। साधुक्कड़ी मस्ती के
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पहचानें, निज ब्रह्म को : 57
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