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के अन्तर् हृदय में यह समर्पण घटित हो जाए । 'निश्चत तौर पर मैं एक खोटा सिक्का हूँ' लेकिन तुम्हारे चरणों में आकर तो खोटा सिक्का भी खरा ही बन जाएगा। यह समर्पण ही मनुष्य को ध्यान की धारा में बहने के लिए सहायता देता है। संबोधि-सूत्र के आज के पद हमें एक ओर भीतर में विराजमान प्रभुता का संकेत देते हैं, वहीं दूसरी ओर आत्मबोध के अभाव में संसार बोध को नगण्य घोषित करते हैं। आज के संबोधि-सूत्र के पद हैं
जग जाना पर रह गये, खुद से ही अनजान । मिले न बिन भीतर गये, भीतर का भगवान || समझ मिली तो मिल गयी, भवसागर की नाव । बिन समझे चलते रहे, भटके दर-दर गाँव ।। मोक्ष सदा सम्भव रहा, मोक्ष मार्ग है ध्यान । भीतर बैठे ब्रह्म को, प्रमुदित हो पहचान ।।
'जग जाना पर रह गये खुद से ही अनजान।' सारे संसार को जान लिया, पर अपने आपसे अनजाने रह गये तो जानकर भी क्या जाना ? आत्मबोध ही तो जीवन की वह परम घटना है जहाँ से अध्यात्म का आदि और अन्त है । बिना आत्मबोध के तो सौ-सौ बार संन्यास भी ले लिया जाए तो भी वह संन्यास जीवन के कायाकल्प में मददगार नहीं बन सकता है। ध्यान स्वयं के प्रति,
निजता के प्रति सजग होने का उपाय है। पता है, जब महावीर ने अभिनिष्क्रमण किया था तो वे तीन ज्ञान के धारक थे। कहाँ क्या घटित हो रहा है इसका उन्हें बोध था। तुम्हारे मन की बात जानने में वे तब भी सक्षम थे, इसके बावजूद उन्हें लगा कि भले ही व्यक्ति अखिल ब्रह्माण्ड का भी ज्ञाता क्यों न हो जाए, लेकिन स्वयं का ज्ञाता न हो पाया, तो उसका ज्ञान अधूरा है।
स्वयं को जानने का मतलब कोई आईने के सामने जाकर चेहरा नहीं देखना है । स्वयं को जानने का तात्पर्य है अपने आपको जानना, उस अपने आपको जो इस शरीर में रहते हुए भी इस शरीर के पार पहुँच सकता है। महावीर बारह वर्षों तक जंगल में साधना करते रहे। क्या किया उन्होंने साधना में ? अपनी चित्तवृत्तियों के प्रति वे सजग बने । साधना की सिद्धि कोई चमत्कार की उपलब्धि में नहीं है। उसकी सिद्धि तो स्वयं की उपलब्धि में है । अगर बारह वर्ष तक साधना करके उसका परिणाम पानी में चल सकने की क्षमता उपार्जित करना है तो पानी में तो नाव भी चल लेगी और तुम्हें उस पार पहुँचा देगी
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56 :: महागुहा की चेतना
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