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________________ बने रहना ही तो संसार में भगवत्ता का फूल खिलाने के लिए किया गया उपक्रम है। संसार में रहो, जीयो, लेकिन संसार से अछूते बने रहो। अपने जीवन की नौका को परम पिता परमेश्वर के श्रीचरणों में समर्पित किए रखो, तो पाओगे कि जो नौका को डुबो रहा है वही उसे वापस खेने की भूमिका निभा रहा है। जो झंझावात दे रहा है, वही जीवन की शांति भी दे रहा है। जो आग उठा रहा है वही चंदन की शीतलता दे रहा है। जो मन की बगिया को सूखी बना रहा है वही नंदनवन के रूप में उसे रूपांतरित कर रहा है। वही मिट्टी दे रहा है और वही मृण्मयता में स्वर्णिमता की घटना को घटित कर रहा है। पहुँच हो अगर हमारी भीतर के भगवान तक तो शायद हम अपने जीवन में एक ऐसा सुवासित फूल खिला सकते हैं जो कर्दम में कमल-सा सुवासित फूल खिला सके। यों तो मेरा तन माटी है, तुम चाहो कंचन हो जाए। तृषित अधर कितने प्यासे हैं, तृष्णा प्रतिपल बढ़ती जाती, छाया भी तो छूट रही है, विरह दुपहरी चढ़ती जाती। रोम-रोम से निकल रही है, जलती आहों की चिनगारी, यों तो मेरा मन पावक है, तुम चाहो चंदन हो जाए।। मेरे जीवन की डाली को, भाई कटु शूलों की माया, आज अचानक अरमानों पर, सारे जग का पतझड़ छाया। असमय वायु चली कुछ ऐसी, पीत हुई चाहों की कलियाँ, यों तो सूखी मन की बगिया, तुम चाहो नंदन हो जाए।। अब तो सांसों का सरगम भी, खोया-खोया सा लगता है, अनगिन यत्न किए मैंने पर; राग न कोई भी जगता है। तार भीड़ में खिंचने पर भी, स्वर संधान नहीं हो पाता, यों तो टूटी-सी मन वीणा, तुम चाहो कम्पन हो जाए।। मेरा क्या है इस धरती पर, सिर्फ तुम्हारी ही छाया है, चाँद-सितारे तृण तरु-पल्लव, सिर्फ तुम्हारी ही माया है। शब्द तुम्हारे, अर्थ तुम्हारे, वाणी पर अधिकार तुम्हारा, यों तो हर अक्षर क्षर मेरा, तुम चाहो वंदन हो जाए।। परमपिता परमेश्वर के प्रति यह समर्पण की भावना है और ध्यान की बैठक लगाने से पहले या उसकी गहराई में उतरने से पहले यह जरूरी है कि व्यक्ति पहचानें, निज ब्रह्म को : : 55 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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