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________________ बढ़ते रहे। भले ही यह घोषणा कर दी गई हो कि जीवन की तलाश या अस्तित्व की तलाश अन्तहीन है, मगर इस घोषणा से आत्म-साधकों ने कभी हार न मानी और अधिक से अधिक प्रेरित हो, वे आगे बढ़ते चले गए। जो निकला है अब तक मंजिल की तलाश में, वह अन्त तक तो पहुँचा ही है । यह जानते हुए भी कि जीवन का सत्य या जीवन का आनन्द कहीं बाहर नहीं, वरन् मनुष्य के अपने अन्तर्घट में है । आत्मा का खोजी तो करोड़ों में कोई एकाध ही पैदा हो पाता है। अधिकांश लोग जन्म लेते हैं और जीवन की एक बनी-बनाई लीक पर जीकर ही विदा हो जाते हैं । आत्मा की खोज का नाम ही अध्यात्म है, लेकिन यदि सामान्य व्यक्ति से पूछो कि क्या तुम आत्मा के रहस्य को जानते हो ? तो वह कहेगा, नहीं । उसके जीवन में मात्र भौतिक तत्त्वों के अलावा और किसी को पाने की ललक या प्यास ही नहीं है । भौतिकवादी चिन्तन, भौतिक क्रियाकलाप और भौतिक ही जीवन । एशोआराम से जीना, यही जीवन का जैसे मकसद बना लिया है हमने । जन्मों-जन्मों तक मनुष्य संसार में ही जीता रहा है और उसी की धारा को आगे बढ़ाता रहा है। जब तक व्यक्ति अन्तर्दिशा की ओर अभिमुख नहीं हो जाता तब तक उसका सारा दृष्टिकोण बहिर्मुखी ही रहेगा, अन्तर्मुखी न बन पाएगा। शरीर का पवित्रीकरण तो शायद वह कर भी ले, लेकिन चित्त में जो क्रोध, काम, लोभ की अकूड़ी जमा हो गई है । उसको हटाने या उसका विरेचन करने का उसके पास कोई उपाय न होगा। भगवान की तलाश में जीवन भर मंदिरों और तीर्थों का पर्यटन होता रहेगा, लेकिन भीतर के भगवान तक उसकी पहुँच न बन पाएगी। हम जो संबोधि - सूत्र में उतर रहे हैं, यह निज में जिन की तलाश करने की प्रेरणा दे रहा है और यह संकेत दे रहा है कि सब कुछ जानकर भी स्वयं को न जान पाए तो जीवन की सारी जानकारियाँ अधूरी रह जाएंगी। 1 हम रोज ध्यान करते हैं । इस ध्यान का उद्देश्य किसी भगवान के दर्शन करना नहीं है अपितु इसका उद्देश्य तो स्वयं से स्वयं का साक्षात्कार है । ध्यान का विज्ञान ही संसार से स्वयं को उपरत रखते हुए मुक्ति की परिभाषा देना है। इसलिए ध्यान जीवन का विज्ञान है । यह सिखावन हमें जीवन में ध्यान ही दे सकता है। संसार में रहते हुए भी संसार से हम कैसे अछूते और निर्लिप्त रहें, ध्यान हमें यह शिक्षा देने में सक्षम है। पत्नी के साथ रहकर, परिवार और समाज के बीच रहकर, व्यवसाय और धन से जुड़कर इन सबसे निर्लिप्त 54 :: महागुहा की चेतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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