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भी क्या जलाया, अगर अंतर् का दीप न जला पाए। जीवन भर तक बाहर का सूर्योदय देखते रह गए तो क्या हुआ, अगर भीतर के सूर्योदय की पहचान न कर पाए तो। खोज तो की जीवन भर तक, एक वैज्ञानिक और इतिहासकार बन कर खोज की, पर अन्ततः उस खोज का परिणाम क्या आया, अगर स्वयं की खोज न कर पाए। अगर सारी दुनिया का ज्ञान प्राप्त कर भी लिया, तो उससे क्या हुआ, यदि आत्म-ज्ञान को उपलब्ध न कर पाए।
महत्वपूर्ण खोज तो स्वयं की है, महत्वपूर्ण प्रकाश स्वयं का है और महत्वपूर्ण ज्ञान भी स्वयं का है। विज्ञान और अध्यात्म का सबसे बड़ा फर्क भी यही है। हालांकि दोनों ही खोज से प्रकट होते हैं, पर विज्ञान की खोज प्रकृति से जुड़ जाती है और अध्यात्म की खोज पुरुष से जुड़ जाती है। पुरुष यानी आत्मा। अध्यात्म का उद्देश्य ही आत्मा की खोज है। अस्तित्व के उस रहस्य की खोज जो अनादि-अनन्त है। अब तक लाखों-करोड़ों मानवों ने इस राह पर कदम बढ़ाए होंगे, पर निःशेष होते निष्कर्ष रूप में हर कोई यही कह पाया कि यह जीवन, यह चेतना अनादि और अनन्त है। हजारों दफा मृत्यु की गोद में जाकर न तो यह मरती है और न ही किसी गर्भ से कभी इसका जन्म होता है। इससे सम्पृक्त मृण्मय देह का ही जन्म होता है और उसी की मृत्यु होती है। चिन्मय तो चिन्मय ही रहता है। उसका भला कैसा जन्म और कैसी मृत्यु ? शाश्वत का न तो सृजन होता है, न विध्वंस।
सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि चेतना मन, प्राण और बुद्धि के सम्पर्क में मृण्मय में उलझ जाती है और परिणामस्वरूप चेतन तत्त्व चेतन होते हुए भी चैतन्य का बोध प्राप्त नहीं कर पाता।
कछ महामानव बढ़ते हैं स्वयं की खोज में, जीवन की खोज में, चैतन्यकेन्द्र की तलाश में और हर आत्मखोज का यही परिणाम सामने आता है कि यह चैतन्य-धारा का सतत प्रवाह है। जीवन-जगत एक सतत प्रवाह है। जिसके कि प्रारम्भ को न तो कोई जान पाया है और न ही अन्त को। कालचक्र सदा से घूमता रहा है, घूमता रहेगा। और हम उसकी गति में सतत प्रवर्तन कर रहे हैं।
निश्चित तौर पर जिन लोगों ने सत्य को जाना है, उन्होंने इसे प्रकट भी किया है। इसके बावजूद स्वयं की खोज तो आखिर स्वयं को करनी पड़ती है। इस अस्तित्व में जीवन-सत्य की हजारों महामानवों के द्वारा तलाश हुई है, घोषणा हुई है। एक के बाद एक महापुरुष मशाल थामते रहे और आगे
पहचानें, निज ब्रह्म को :: 53
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