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सामने सिकंदर की शक्ति भी नाकाबिल घोषित हो जाती है। हम मूर्च्छा से बाहर आएं, सपनों से जगें और चित्त के प्रति सजग अवस्था को उपलब्ध करें।
'मिले न भीतर गए, भीतर का भगवान ।' बात काफी महत्वपूर्ण है। भगवान शब्द को हम जरा बड़ा बारीकी से समझ लें । सम्पूर्ण अस्तित्व में व्याप्त शब्द है यह। भगवान का 'भ' भूमि है। उसका 'ग' गगन है। उसका 'वा' वायु का प्रतीक है, 'न' नीर का प्रतीक है और उसका हलन्त अग्नि का प्रतीक है। इन पंच महाभूतों पर ही तो अस्तित्व टिका हुआ है। इन मंचमहाभूतों के सम्मिश्रण से जो देह निर्मित होती है उस देह में रहने वाली ज्योतिर्मयता ही भगवान का मौलिक अस्तित्व है । शरीर पंच महाभूतों की संरचना है और इस शरीर के पार जाना पंचमहाभूतों से उपरत होकर उस मौलिक आत्मा तक पहुँचना है
ना मैं मंदिर, ना मैं मस्जिद,
ना काबा, ना कैलास में,
खोजहिं हों तो, तुरत ही मिलिहों, मैं तो तेरे पास में,
सब साँसों की साँस में ।
'समझ मिली तो मिल गई, भवसागर की नाव ।' बात महत्वपूर्ण है । यहाँ समझ का मतलब अन्तर्विवेक से है। होश, जागरूकता और बोध से है। बिना समझ के हम चाहे जो कुछ करते रह गए, वे सब अंधेरे में हाथ मारने के समान होंगे। जो कुछ करो, समझपूर्वक करो, बोध और विवेकपूर्वक करो। खाओ, पीओ, उठो, बैठो, जो कुछ करो, तुम्हारे कोई पाप का बंधन नहीं होगा, अगर बोध और समझ का दीप तुम्हारे हाथ में है तो ।
'बिन समझे चलते रहे, भटके दर-दर गाँव ।' बिना होश के तो जीवन अगर चलता भी रहा, बस, जी लिए । जन्मों-जन्मों से जीवन जीया है, लेकिन हर जन्म बेकार ही गया। सैकड़ों-सैकड़ों दफा संन्यास भी लिया होगा, पेड़ पर औंधा लटककर साधना भी की होगी, एक पाँव पर खड़े रहकर साधना की होगी, केशों का लुंचन भी किया होगा, कभी दिगम्बर भी बन गए होओगे, लेकिन इसके बावजूद 'यह साधन बार अनन्त कियो, तदपि कछु हाथ हजु न पर्यो - खाली के खाली रहे, सब कुछ करके भी ।
'मोक्ष सदा संभव रहा, मोक्ष मार्ग है ध्यान।' बड़ा महत्वपूर्ण पद है यह संबोधि- सूत्र का | नयी क्रांति को जन्म दे रहा है यह । अगर बंधन हो सकता
58 :: महागुहा की चेतना
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