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आपके लिए, चेतना के ऊर्ध्वारोहण के लिए, कितना कर पाते हैं, यह महत्वपूर्ण है। मैंने व्यवस्था की कि दिन भर का एक भाग ज्ञानाराधना में बीते, स्वाध्याय हो, ताकि ध्यान की अगर बैठक लगे, तो चिंतन को और अधिक ऊर्ध्वमुखी आयाम मिल सके। प्रतिदिन स्वाध्याय होता रहे, तो मस्तिष्क का अभिनव प्रक्षालन हो सकता है, ऐसा प्रक्षालन, जिसमें कुछ नया चिंतन उपलब्ध हो और पुराना कचरा बह जाये।
दूसरा नियम मैंने बनाया-दर्शन-आराधना, दर्शन की आराधना हो और इसके लिए विकल्प चुना-नया सृजन । ऐसा नया सृजन जिससे साहित्य को नये आयाम मिले, जिसका सम्बन्ध कोरी मस्तिष्क की खुजलाहट से नहीं वरन् जीवन-विकास से हो। तीसरा चरण मैंने स्वीकार किया-चारित्र-आराधना। यों तो मैंने चारित्र बीस साल पहले ही स्वीकार कर लिया, लेकिन मात्र गुरु से चोटी खिंचवा लेना, इतना ही चारित्र नहीं है। चारित्र तो भीतर का आनन्द है, जीवन की ऐसी परिमल यात्रा है, जिसमें अवसाद, दुःख, चिंता, कषाय, कामना पास भी न फटक सके, यह तो आनन्द है। चारित्र तभी सार्थक होता है, जब तुम्हें आनन्द उपलब्ध हो जाये। आनन्द की उपलब्धि के लिए ध्यान की बैठक जरूरी है। ध्यान की बैठक न होगी, तो कैसे होगा मन का कायाकल्प, वृत्तियों का विरेचन और हमारी शक्ति ऊर्ध्वमुखी कैसे बन पाएगी।
आज हम संबोधि-सूत्र के जिन पदों को उठा रहे हैं, वे मनुष्य के अन्तस् से जुड़े हैं, उसके मन से जुड़े हैं। केवल बाह्य व्यक्तित्व ही नहीं, आंतरिक व्यक्तित्व भी उज्ज्वलतम होना चाहिए। आज के संबोधि-सूत्र के पद हमारे लिए जीवन की नई दिशा दे रहे हैं। वे मनुष्य के रोम-रोम में ऐसा प्राण फूंकना चाहते हैं कि मनुष्य अपने भीतर उतरकर मन का कायाकल्प कर सके। मन की मुक्ति के लिए आज के सूत्र हमारे लिए बेशकीमती हैं। आज के सूत्र हैं
मन के कायाकल्प से, जीवन स्वर्ग समान। भक्ति से शृंगार हो, रोम-रोम रसगान ।। मन मंदिर इंसान का, मरघट, मन श्मशान। स्वर्ग-नरक भीतर बसे, मन-निर्बल, बलवान ।। मन की दुविधा गर मिटे, मिटे जगत्-जंजाल।
महागुफा की चेतना, काटे मायाजाल।। सूत्र का पहला भाव है-मन का कायाकल्प-'मन के कायाकल्प से, जीवन स्वर्ग समान' | कायाकल्प काफी महत्वपूर्ण शब्द है, जीर्ण-शीर्ण हो जाती है
मुरली बाँस की : : 43
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