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________________ और अनुप्रेक्षा हो, तो ऐसे। सिर पर अंगारे धधकते रहे, लेकिन शरीर की अनुप्रेक्षा करते हुए एक-एक पल की घटना का वह साधक साक्षी बन गया। इस बोधि के साथ वह तल्लीन बना रहा कि मैं अलग हूँ और शरीर अलग है। कहते हैं, वह साधक साधना की इतनी गहराई में पहुँच गया कि वह रात उसकी साधना की अंतिम रात बन गई और सूर्योदय से पहले ही उसके भीतर रोशनी जगमगा उठी। वह मुक्त हो गया, बोधिलाभ को उपलब्ध हो गया। ___ हजार दफा ध्यान की बैठक लगाकर और शिविरों में सम्मिलित होकर भी शायद शरीर की उस अनुप्रेक्षा का आंशिक भाग भी हम जीवन में चरितार्थ नहीं कर पाये। इसलिए मैंने कहा, वर्तमान में आओ। कल की बातों को अब छोड़ो। न बीता कल और न आने वाला कल। तुम्हारा तो वर्तमान है। मनुष्य के साथ आम तौर पर तीन तरह के तनाव होते हैं-शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक । कायोत्सर्ग के द्वारा हम शरीर का व्युत्सर्ग करते हैं। ध्यान-शिविर में हम जो दोपहर में ध्यान करते हैं, वही कायोत्सर्ग ध्यान है। हम देहानुभूति से विदेहानुभूति में प्रवेश करते हैं। शारीरिक तनाव तो फिर भी हल्का है। कायोत्सर्ग की थोड़ी-सी बैठक लग जाए, तो यह दूर हो जाता है, लेकिन मानसिक तनाव हमारी आध्यात्मिक उन्नति को रोकता है। गेहूँ में घुन की तरह आध्यात्मिक विकास को नष्ट कर देता है। मानसिक तनाव के दो कारण होते हैं किसी भी बिंदु पर ज्यादा सोचना या अनावश्यक सोचना। आप देखेंगे कुछ लोगों की स्थिति कि किसी तरह की घटना घट गई या किसी ने कोई विपरीत बात कह दी, तो व्यक्ति उसी में घुटता रह जाता है। दो शब्द कह दो, तो उसका मन भारी हो जाता है। उसकी बेचैनी चेहरे पर भी उभर आती है। सोचना अच्छा है, लेकिन सोच की दिशा हमेशा सृजनात्मक रहनी चाहिए। और दूसरी बात जब जो करो, तब उसी का सोच रहे। ___अभी पिछले वर्ष मैंने अपनी दैनंदनीय व्यस्थाएँ बनाईं। हमारे यहाँ तीन शब्द हैं-ज्ञान-आराधना, दर्शन-आराधना और चारित्र-आराधना। मुनि-जीवन में मेरी दृष्टि में इन तीनों का आचरण अवश्य कर लेना चाहिए। कहीं ऐसा न हो जाए कि हमारा समय और श्रम मात्र सामाजिक व्यवस्थाएँ बिठाने में, दिन भर आने-जाने वालों से मिलने में, प्रवचन इत्यादि कार्यों में ही खर्च हो जाये। यह कोई मुनि-जीवन थोड़े-ही है। यह तो सामाजिक व्यवस्थाएँ हैं। हम अपने 42 : : महागुहा की चेतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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