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या शरीर के अन्य अंगों को देखो। शरीर की विपश्यना का मतलब है कि हम साक्षी भाव में उतरकर शरीर के अन्तर्जगत घटित होने वाली घटनाओं को देखें और स्वयं को उनसे उपरत रखने का प्रयत्न करें। कभी शरीर में प्रिय घटना घटित होती है, तो कभी अप्रिय घटना, कभी शरीर के किसी अंग में सुख की अनुभूति होती है, तो कभी दुःख की । ऋतु के अनुसार सर्दी और गर्मी की अनुभूति भी होती है । अनुभव किया होगा आपने कि जब हम शरीर की विपश्यना करते हैं, तो शरीर के किसी भाग पर खुजलाहट उठती है, कहीं अनमनापन लगता है, कहीं दर्द होता है। इन सब स्थितियों में साधक का साक्षी भाव में डूबे रहना - यही साधक की वर्तमान में बैठक है। ऐसा करते-करते साधक स्मृतियों और कल्पनाओं से तो मुक्त होता है, देहातीत अवस्था को भी
उपलब्ध करता है ।
वर्तमान का साक्षी बनने के बाद सबसे बड़ी उपलब्धि होती है कि व्यक्ति अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में सम हो जाता है । उपसर्ग शरीर से जुड़ते हैं और साधक जब शरीर की प्रेक्षा करते हुए उससे उपरत हो जाता है, तो बाहरी घटनाएँ उसके शरीर पर तो क्या, मन पर भी प्रभाव नहीं डाल पातीं ।
हम ध्यान में बैठते हैं। अगर एक मच्छर आ जाए तो लगता है, उसकी सनसनाहट जैसे कान में रेंग रही है; एक मक्खी आ जाये और शरीर के किसी भाग पर बैठ जाये, तो झट से तुम्हारी मानसिकता उस भाग पर चली जाती है, जहाँ मक्खी बैठी है। अगर शरीर की अनुप्रेक्षा सध जाये तो शायद हम किसी ऐसी ध्यान की परम अवस्था में पहुँच सकते हैं, जहाँ शरीर में रहते हुए भी मुक्त चेतना की स्पष्टतः अनुभूति कर सकते हैं।
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पुरानी किताबों में गजसुकुमार की घटना आती है । ये भगवान श्रीकृष्ण के छोटे भाई थे। किसी ब्राह्मण-पुत्री के साथ विवाह की बात भी तय कर ली गई थी, लेकिन तीर्थंकर नेमि के पावन विचारों से प्रेरित होकर गजकुमार की चेतना जग गई, प्रव्रजित हो गया। पहले ही दिन चला गया, श्मसान घाट ध्यान करने। गहरी अंतर - तल्लीनता को उपलब्ध करके ध्यान में उतर गया । अपनी बेटी से विवाह न हो पाने के कारण ब्राह्मण क्रोधित हो उठा। खोजतेखोजते वह श्मसान पहुँच गया। देखा गजकुमार ध्यान में है । ब्राह्मण ने इसे नाटक समझा। उसने आसपास से मिट्टी ली, गजकुमार के सिर पर पाल बांध दी। आसपास पड़े जलते अंगारों को मुनि के सिर पर डाल दिया । ब्राह्मण तो चला गया; अब मुनि की बारी थी । किसी साधक के शरीर की विपश्यना
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काया मुरली बाँस की 41
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