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________________ ही देर में मन स्मृतियों के सागर में डूब गया। किसने, कब, तुम्हारा अपमान किया, किसने सम्मान किया, किसने, कब, गाली दी, किसने, कब, क्या कियायही सब कुछ चलता रहा मनोमस्तिष्क में और माला चलती रही। मन का उपयोग किया जाना चाहिए। जब जो कार्य करें, तब उसी कार्य में किया जाने वाला मन का उपयोग मन की एकाग्रता है, जब जो कर रहे हैं, उसके विपरीत दिशा में मन का जाना मन की व्यग्रता है। अतीत की स्मृतियाँ और भविष्य की कल्पनाएँ मनुष्य का मन प्रायः इन्हीं में उलझा रह जाता है। जब तक मन वर्तमान में नहीं उतर आता है, तब तक मनुष्य के प्रयास आध्यात्मिक प्रयास नहीं बन पाते। जड़ और पुद्गल तत्त्वों में ही उसके पाँव जमे रह जाते हैं। बड़ी सहजता और सजगता के साथ धीरे-धीरे मन को वर्तमान की बैठक दी जा सकती है, अतीत और भविष्य से सामान्यतया मन को मुक्त कर दिया जाता है, तो मन को विश्राम मिलता है, भार से मुक्ति मिलती है और मानसिक तनाव से मुक्ति मिलती है। अगर हम यह सोचते हैं कि मन हमारे शरीर के भीतर है, तो जितना हम चलेंगे, उतना ही मन चलेगा, तो हमारी यह सोच अपूर्ण है। शरीर का तो काम ही कितना है। कुछ गिने-चुने काम ही तो हम शरीर द्वारा करते हैं। बाकी सब तो मन ही संपादित करता है। क्षण भर में मन अतीत को पकड़ लेता है और क्षण भर में ही भविष्य को। इसलिए मन काफी महत्वपूर्ण है। इसे समझा जाना चाहिए। हमें मन का उपयोग अधिक से अधिक वर्तमान के लिए करना चाहिए। संबोधि-ध्यान में हम प्रतिदिन सांसों की विपश्यना करते हैं, प्रेक्षा करते हैं, उनके प्रति सजग होते हैं। मन को वर्तमान में लाने का इससे श्रेष्ठ कोई साधन नहीं होता है, क्योंकि सांस और अनुप्रेक्षा अलग-अलग घटित नहीं होते हैं। दोनों का सातत्य रहता है। अगर ध्यान की विधि में यह निर्देश दिया जाता है कि सांसों की अनुप्रेक्षा करो, तो श्वांस और मन दोनों एक हो जाते हैं, एक साथ दोनों का क्रम चलता है। तब हमारा मन न तो बीती हुई सांस की स्मृति करता है और न ही आने वाले सांस की कल्पना। तब मन की स्थिति होती है वर्तमान की। __ भगवान ने कहा है-राग और द्वेष कर्म के बीज हैं। कर्म के मूल निमित्त ये ही बनते हैं। जो वर्तमान का साक्षी है, उसके न तो राग होता और न द्वेष होता है। विपश्यना-ध्यान की जो विधि है, उसका एक चरण शरीर की विपश्यना है। इसका अर्थ यह नहीं है कि अपनी चमड़ी को देखो, हाथ-पांव को देखा - - 40 : : महागुहा की चेतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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