SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हथेली। आपकी जो सबसे छोटी अंगुली है,, उसके मूल से थोड़ा नीचे एक रेखा है वह हृदय-रेखा है। दोनों हथेलियों की रेखाओं को मिलाकर देखिए कैसी सुन्दर सिद्धशिला बनती है। यह सिद्धशिला ही है जो हम बाहर बनाते हैं और उस अवस्था की प्राप्ति जीवन को मुक्त करती है। यह तो हमारे ही हाथ में है हम कहाँ उसे ब्रह्माण्ड में ढूंढ़ते हैं। हमारा आसमां तो हमारी हथेली में है। हम किधर बाहर प्रणाम कर रहे हैं। यह बाहरी प्रणाम नहीं है, यह तो स्वयं के देवता को प्रणाम है। जो सिद्धशिला हमारे हाथ में है, उसे प्रणाम है। प्रातःकाल जागकर सबसे पहले इसका दर्शन करो और आँख बंदकर इसको प्रणाम भी। यह धरती भगवान का तीर्थ है, यह शरीर भगवान का मंदिर है, और इस शरीर में विद्यमान चेतना भगवान की प्रतिमा है। इस प्रतिमा को प्रणाम करो। सबमें सबका राम है तुम्हारा राम तुम्हारे पास है। तुम क्यों इधर-उधर भटककर समय नष्ट कर रहे हो। तुम्हारी आदत ही तुम्हें भटका रही है। सदियों से भटकते रहे हो और जब भी किसी ने राह दिखाने की कोशिश की, तुम्हारी आदत बीच में आ गई। तुमने उसकी उपेक्षा कर दी। आखिर कब तक यह चलता रहेगा। बस अब बहुत हो चुका । जानकर नादान मत बनो। अपने जीवन को ज्योति-कलश बनाओ। अपने देवता को पहचानो और उसे प्रणाम करो। बाहर-बाहर बहुत जी लिए अब अन्तस् के आकाश में उतरो, वहाँ महारास रचाओ। काया मुरली बांस की, भीतर है आकाश। उतरें अन्तर् शून्य में, थिरके उर में रास।। हमारी काया तो बांस की मुरली जैसी है। मुरली बांस की खाली पोंगरी होती है, उसमें से मधुर स्वर गुंजरित होते हैं। यह शरीर भी ऐसा ही है तुम इसका सदुपयोग करते हो या दुरुपयोग, यह तुम्हारे हाथ में है। इस शरीर से तुम सत्कार्य करते हो या कु-कार्य तुम्हारी इच्छा है। मुरली में आकाश-अवकाश है, रिक्त स्थान है। यदि उसे सही ढंग से बजाया जाए तो संगीत उत्पन्न होता है, नहीं तो खाली पोंगरी तो है ही। तुम्हारी साधना भी तुम्हारे अन्तर्हृदय में ऐसा ही संगीत जाग्रत कर सकती है। वह अन्तरिक्ष जिसे तुम बाहर देख रहे हो वह अनंत अन्तरिक्ष तुम्हारे भीतर भी है। तुमने कभी अपनी शरीरगत चेतना को परखने की कोशिश ही नहीं की। अभी कुछ दिनों पूर्व मैं मेडिकल कॉलेज में गया था यह जानने कि मनुष्य के शरीर में क्या-क्या है। वहाँ मैंने शवों के परीक्षण देखे और शरीर के अन्दर के अवयवों और नाड़ियों को देखा। उनके कार्यों के बारे में जानकारी हासिल की तो मैंने पाया कि बाहर जितनी भी 36 : : महागुहा की चेतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy