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________________ साधना के पथ पर कदम बढ़ाइए, लेकिन सबसे पहले स्वयं को रिक्त कर लेना है। खाली पात्र में जो उतरेगा वह स्थायी और शाश्वत होगा नहीं तो तुम्हारे संदेह, तुम्हारे ही कांटे बन जाएंगे। तुम्हारी कलुषता पवित्रता को भी अपवित्र कर देगी। जहर के प्याले में अगर अमृत की बूंदें डाली जाएं तो वे भी जहर में बदल जाती हैं। इसलिए वह साधक ध्यान द्वारा तुम्हारे जीवन में ऐसी भूमिका बनाना चाहता है कि अगर अमृत की बूंदें बरसें, परमात्मा की दिव्यता प्रकट हो तो तुम्हारा चेतन निर्मल, पवित्र और रिक्त हो ताकि तुम उस अमिरस को आत्मसात कर सको। 'ज्योति-कलश है जिंदगी, सबमें सबका राम । भीतर बैठा देवता, उसको करो प्रणाम' - तुम्हारा जो कोरा कागज था उसे ज्योति-कलश बनाओ। इन्द्रधनुष के रंग भरकर उसे ज्योतिर्मय करो। तुमने मंदिर के शिखर पर कलश देखे होंगे। वह मंदिर का ऊपरी सर्वोच्च भाग है। नीचे पूरा मंदिर है, अन्दर देव-प्रतिमाएं विद्यमान हैं, तुम उन्हें वंदना करते हो लेकिन जीवन मंदिर को विस्मृत किये बैठे हो। ज्योति-कलश का प्रतीक बहुत ही अर्थपूर्ण है। मंदिर का शिखर-कलश तुम्हारा सिर है। तुम सभी के अन्दर तुम्हारा राम है फिर तुम उसे बाहर कहाँ ढूंढ़ते हो। अपनी दृष्टि को लौटाओ, तुम्हारा राम तुम्हें मिल जाएगा। वह सदा से ही तुम्हारे भीतर था, लेकिन तुम भीतर न जा सके इसलिए बाहर मंदिरों का निर्माण कर लिया और उन पर कलश रख दिये। मंदिरों में देवताओं की स्थापना कर ली। यह बाहरी मंदिर प्रतीक हैं भीतर के मंदिर के। मंदिर में जाने का अर्थ है कि अपने भीतर प्रवेश करो, अपने देवता को पहचानो, अपने राम से मुलाकात करो, अपने प्रभु से सम्पर्क बनाओ। उन्हें प्रणाम करो। साधक कह रहा है कि बहुत भटक लिए बाहर, अपने भीतर जाओ और देखो कि तुम्हारा राम तुम्हारे ही पास है। उसे कहाँ-कहाँ ढूँढ़ लिया पर न पा सके। अब एक बार, केवल एक बार भीतर मुड़ जाओ और वह वहीं है जिसे तुम सदा-सदा के लिए पा जाओगे। तुम ढूंढ़ते हो कहीं अन्तरिक्ष में, किसी तीर्थ में, लेकिन नहीं ढूंढ़ते तो अपने भीतर। तुम जहाँ गए निराशा ही हाथ आई इसलिए अब अपने पास, स्वयं के पास आ जाओ तुम उसे अपने ही पास पाओगे। एक घटना याद आती है-बचपन में जब हम सोकर उठते थे तो हमारी माँ कहा करती थी दोनों हथेलियाँ मिलाकर देखो। फिर उन्हें बंद कर प्रणाम करो। माँ कहती थीं, कर लेते थे। आज भी यह क्रम जारी है पर अब अर्थ बदल गए हैं। हाथ अब भी उठते हैं, प्रणाम भी करते हैं पर अब जानते हैं क्या कर रहे हैं। अब अपने अन्दर बैठे देवता को प्रणाम करते हैं। आप भी देखिए अपनी काया मुरली बाँस की : : 35 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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