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________________ वकील बनाएंगे। पति वकील था। हर पिता यही चाहता है कि जो वह कर रहा है वही बेटा भी करे। सो अड़ गया कि वकील । और पत्नी की जिद कि डॉक्टर । बात बढ़ गई। दोनों अपनी बात पर अडिग। दिन बीते, लेकिन जिद नहीं गई। स्थिति यहाँ तक बिगड़ गई कि दोनों के बीच तलाक की नौबत आ गई। कचहरी में तलाकनामा प्रस्तुत हो गया। न्यायाधीश ने तलाक का कारण जानना चाहा क्योंकि वे अभी तक प्रसन्न और सुखी-सम्पन्न दम्पत्ति थे। न्यायाधीश को भी आखिर मालूम होना चाहिए कि तलाक का आधार क्या है। अब वकील पति बोला कि मैं अपने बेटे को वकील बनाना चाहता हूँ और मेरी पत्नी की जिद है कि वह डॉक्टर बनाएगी। अब आप ही बताइये कि पुत्र पर माँ का अधिकार होता है कि पिता का। न्यायाधीश चौंका क्योंकि उसे भी पता था कि उनके कोई बेटा नहीं है। उसने कहा तुम लोग अपने पुत्र को बुलाओ उसी से पूछ लेते हैं कि वह क्या बनना चाहता है। पति-पत्नी चकित रह गये। उन्होंने कहा-साहब ! पुत्र तो ज्योतिषी की जन्म-कुण्डली में ही है, अभी पैदा नहीं हुआ है। जिसका अस्तित्व ही नहीं है उसके लिए अपने वर्तमान को दांव पर लगा दिया। तुम्हारा जीवन इसलिए नहीं है कि यूं ही इसे विनष्ट कर दिया जाए। थोड़ा-सा सचेत होने की जरूरत है, फिर तुम देखोगे कि अभी तक का जीवन व्यर्थ गंवा दिया। सचेतनता जीवन में क्रांति ला देगी। तुम्हारा कागज तुम्हें दिखाई देगा कि इसमें क्या-क्या निरर्थक लिख दिया है, तुम उसे हटाना चाहोगे। तुम फिर से उसे कोरा करने में उत्सुक हो जाओगे, लेकिन जो लिखा जा चुका है उसे समाप्त करने का उपाय नहीं है। हाँ, जो शेष रह गया है उसे अवश्य ही सुधार सकते हो। उसको जरूर जीवन से भर सकते हो। उसमें सतरंगी इन्द्रधनुष उतार सकते हो। इन्द्रधनुष देखा है कितना रंगीन, कितना सुन्दर, जिसमें प्रकृति का उल्लास झरता है। तुम भी अपने जीवन को ध्यान, प्रेम, करुणा के रंग से भर दो, उत्सव और आनन्द झरने दो। ऐसा आनन्द जो आज तक नहीं मिला है। हम अत्यधिक विकल्पों से भरे हुए हैं और ध्यान निर्विकल्प करने की क्रिया है। कितने भरे हैं अंदर कुछ न समाता, अद्भुत कुछ घटने वाला घटने न पाता। व्यर्थ के विकल्पों में गोते न खाइए, अपने को पहले बिल्कुल खाली बनाइये। 34 : : महागुहा की चेतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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