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और निर्विकल्प होकर ध्यान की गहराइयों में प्रवेश करे। अब हम संबोधिसूत्र के अगले चरण की ओर बढ़ते हैं जहाँ साधक अपनी दिव्य चेतना को उपलब्ध करने के पश्चात् दुनिया को संदेश दे रहा है
मंदिर का घंटा बजे, खुले सभी की आँख, दिव्य ज्ञान के 'सबद' दो, मिले पढ़न हर सांझ। शुभ करनी हर दिन करें, टले न कल पर काम, सातों दिन भगवान के, फिर कैसा आराम। साधु नहीं, पर साधुता, पा सकता इंसान,
पंक बीच पंकज खिले, हो अपनी पहचान। जीवन की बहुत प्यारी और सुन्दर बातें हैं ये। मंदिर का घंटा बजे, खुले सभी की आँख'-अपने जीवन को ऐसी व्यवस्था दो कि प्रभात काल हो और जब आप जगें तो घंटनाद के स्वर आपको सुनाई दें। मंदिर की पवित्रता प्रभात के साथ आपके जीवन में प्रवेश करे। यदि आपके आसपास मंदिर न भी हो तो भी उठने के साथ ही यह अनुभूति करो कि तुम्हारी चेतना को जगाने के लिए नाद हो रहा है और निरंतर अनुभूति करते रहने पर सुबह जागने की वेला आएगी। वह नाद गुंजित होने लगेगा। और तुम आँखें खोलने पर विवश हो जाओगे, तुम्हारा अन्तर्नाद तुम्हें आंदोलित करेगा। लेकिन आज जो मैं स्थिति देख रहा हूँ, बड़ी विचित्र है। सुबह नौ बजे तक तो आँख ही नहीं खुलती। मुझे लगता है शास्त्रों में वर्णित निशाचरों वाली स्थिति आ रही है। रात में काम, खाना-पीना और दिन में सोना, आराम करना। देर रात तक टीवी, फिल्में देखना और सुबह देर तक सोए रहना। कहाँ के घंटनाद और कहाँ की मधुर ध्वनियाँ ! मनुष्य सब भूलता जा रहा है धीरे-धीरे और उसके परिणाम भी भुगत रहा है। यह सब विकृत व्यवस्थाओं के परिणाम हैं। लगता है हमारे अध्यात्म के जो नाद थे, अध्यात्म के जो दिव्य-संदेश थे, वे तो हमारे हाथ से छिटक ही गए हैं। वे दिन भी व्यतीत हो गए प्रतीत होते हैं, जब लोग ब्रह्ममुहूर्त में उठा करते थे और आवश्यक क्रियाओं से निवृत्त हो परमात्मा के भजन में लीन हो जाया करते थे।
___ साधक कह रहा है कि जीवन में इतनी पावनता हो कि जैसे ही मंदिर का घंटनाद हो, हमारी आँखें खुलें या आँखें खुलते ही हमें घंटनाद सुनाई दे जो हमारी चेतना को जाग्रत करे। दिव्य ज्ञान के 'सबद' दो, मिले पढ़न हर सांझ' । जैसे ही सुबह आँख खुले और मंदिर का घंटनाद सुनाई दे उसी तरह सांझ ऐसी हो कि सोने से पहले दिव्य शब्द कानों में आ जाए। यह जो
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