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संध्याकालीन प्रवचन हो रहे हैं, इनका गहरा रहस्य है। सुबह तो तुम प्रवचन सुनते हो और जैसे कपड़े झाड़ते हो उन शब्दों को भी सभास्थल पर झाड़कर चले जाते हो और अपनी दुकानदारी में व्यस्त हो जाते हो। लेकिन सांझ को ऐसा नहीं कर पाओगे। यहाँ से जाओगे, तो जो सुना है वह भी साथ लेकर जाओगे, उस पर चिंतन-मनन भी करोगे। सोते समय भी तुम्हें ये शब्द याद आते रहेंगे। तुम विस्मृत न कर पाओगे और जब स्वप्न आएंगे तब भी यही विचारधारा चलती रहेगी। बार-बार लौटकर तुम यही दोहराओगे और तुम्हारे जीवन में रूपांतरण की पहली घटना घटेगी। दो शब्द दिव्यता के जो सुनाई दे गए, जीवन में कायाकल्प ला देंगे। 'मिले पढ़न हर सांझ'। सांझ अर्थात् संध्या। संध्या चौबीस घंटे में चेतना के लिए सबसे पावनतम वेला है। संध्या का अर्थ है-जिस समय सम अर्थात् सम्यक्, ध्या यानी ध्यान किया जा सके। वह पावन वेला, वह शीतल वेला, वह मनोनुकूल वेला जिस समय व्यक्ति सम्यक ध्यान में उतर सके वही संध्या। सांझ को तुम अपनी बाहर फैली हुई प्रवृत्तियों को समेट लो और ध्यान में उतर जाओ। तुमने देखा होगा संध्या होते ही पक्षी अपनी बाह्यता को सिकोड़कर अपने नीड़ में वापस लौट आता है। अब सांझ हो गई तुम भी अपने नीड़, अपनी चेतना में लौट आओ। दिन भर तुम प्रवृत्तियों में रहे, संसार की उठापटक में लगे रहे, लेकिन अब सांझ की वेला आ गई है अपने सम्यक ध्यान में उतर जाओ। ऐ मेरे वत्स ! अपने पंख समेट लो, स्वयं में लौट आओ। इस समय को प्रभुता का प्रसाद समझना कि तुम दिव्यता का चिंतन करते हुए सोओगे। जीवन की यही धन्यता होगी कि प्रातः आँख खुले तो मंदिर का घंटा सुनाई दे और चेतना जागे और सांझ आई तो दिव्य ज्ञान के दो 'सबद' सुनने को मिल गए। सुबह उठते ही सुकून, रात को सोते हुए भी सुकून। अगला पद है
शुभ करनी हर दिन करें, टले न कल पर काम।
सातों दिन भगवान के, फिर कैसा आराम।। मनुष्य की प्रवृत्ति है कि ऐसा काम जिसमें उसे किसी भी प्रकार का लाभ मिल रहा हो तुरन्त करना चाहता है। लेकिन कोई श्रेयस्कर कार्य, जिससे जीवन का रूपांतरण होने वाला हो वह कल पर टालता चला जाता है। उसके लिए तो मुहूर्तों की तलाश की जाती है। प्राचीन काल में जब कोई सम्राट संतों के दर्शन को जाता और वैराग्य की भावना जाहिर करता तो संत उसे कहते इसे कल पर मत टालो। उनके उपदेश से वे वैराग्य धारण कर लेते और आज
26 : : महागुहा की चेतना
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