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________________ मैंने तो पाया है कि संसार मनुष्य की आदत है। जैसे उसे राग, लोभ, क्रोध करने की आदत है वैसे ही संसार भी आदत है। बचपन से वृद्ध हो जाने तक भी वह अपनी आदतों को नहीं छोड़ पाता। बचपन से पचपन तक उसका जीवन अपनी ही आदतों से घिरा रहता है। जीवन के प्रति सजगता का अभाव आदतों को जन्म देता है। मैं देखा करता हूँ लोग बैठे हैं; कोई पैर हिला रहा है, कोई अंगुलियाँ चटका रहा है, कुछ नहीं तो कागज को फाड़ रहा है या मरोड़ रहा है यानी कुछ-न-कुछ करते रहना आदत में मशगूल है। और ये आदतें सिर्फ सजगता का अभाव हैं। तुम्हें पता ही नहीं चलता कि तुम क्या किये जा रहे हो। तुमने देखा होगा सड़क पर चलते हुए तुम्हारे हाथ भी आगे-पीछे जाते रहते हैं। पाँव तो अपना काम कर रहे हैं पर हाथ ! उन्हें चलाने की क्या जरूरत ? पर नहीं, चल रहे हैं, एक आदत ! वह आदत जो दस करोड़ वर्ष पूर्व की है जब हाथ और पाँव दोनों से चला करते थे-चौपायों की तरह। मनुष्य ने विकास तो कर लिया पर आदत, वह नहीं छूटती। यह संसार की गहरी आदत है हमारी। हमारी जिंदगी आदतों का ढेर बन गई है। मनुष्य की जिंदगी सिर्फ आदत रह गई है। और इन आदतों के रहते व्यक्ति का बोध, उसकी चेतना, उसकी गहरी भावनाएँ सब हाशिए पर चली गई हैं। ध्यान के लिए विशेष त्वरा चाहिए, ध्यान के लिए विशेष शक्ति चाहिए, ध्यान के लिए बाहर की आदतों से मुक्ति और छुटकारा चाहिए। अगर तुम ध्यान में प्रवेश करना चाहते हो तो सबसे पहले अपनी बाहर की आदतों से मुक्त हो जाओ। अन्यथा ध्यान करने बैठ तो जाओगे, पर उसमें कभी दुकान, कभी मकान, कभी पति, कभी पत्नी, कभी व्यवसाय, कहने का तात्पर्य कि बाहर ही उलझे रह जाओगे। ध्यान में भी यही सब स्मरण आता रहेगा और स्वयं के ध्यान से अछूते रह जाओगे। - मुझे याद है : पाँच-छः वर्ष पूर्व हम लोग माउण्ट आबू में थे। इटली का एक जोड़ा आबू के भ्रमणार्थ आया। उनके साथ जो गाइड था वह उन्हें हमारे पास ले आया। उन लोगों ने हमसे बातचीत की ध्यान विषयक। और ध्यान में रुचि जाहिर की। हमसे पूछा; क्या आप लोग ध्यान करते हैं। उन्होंने हाँ कहा। तब हमने पूछा कैसे, तो बताया-बात दरअसल यह है कि हम दोनों पति-पत्नी अलग-अलग शहरों में नौकरी करते हैं और प्रातः रोज एक साथ, एक समय ध्यान करते हैं। हमने कहा-यह तो बहुत अच्छी बात है, पर आप लोग किस प्रकार का ध्यान करते हैं, ध्यान में क्या चिंतन करते हो। बेचारे 22 : : महागुहा की चेतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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