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चाहा, हमने अपना हाथ खींच लिया। यह हमारी प्रवृत्ति रही है कि जीवित संत को कभी नहीं पहचाना, बाद में चाहे मूर्तियाँ बनाकर पूजते रहे हों।
तुम्हारी चाहना थी कि कोई सद्गुरु मिले, किसी महापुरुष का सामीप्य मिले, हाथ को हाथ का सहारा मिले तो आगे बढ़ जाऊँ और जैसे ही सहारा देने के लिए किसी सद्गुरु ने अपना हाथ आगे बढ़ाया तो तुम साथ चलने को राजी न हुए। सौभाग्य से कोई साथ चला और सद्गुरु ने दिखाया कि चाँद उधर है तो तुम्हारी नजरें चाँद तक नहीं पहुँची। वे अंगुली पर ही अटक कर रह गईं। और परिणाम यह निकला कि तुम ध्यान की उस परम-दशा को उपलब्ध नहीं कर पाए। साधना के मार्ग पर चलकर भी पूर्णता नहीं पा सके, क्योंकि संसार का कांटा गड़ता ही रहा। मेरे प्रभु, ध्यान भीतर का द्वार है और धन बाहर का द्वार है। धन और ध्यान में यही अन्तर है कि धन सदा बाहर का द्वार, बाहर के साधन, बाहर के निमित्त देगा और ध्यान भीतर की गहराइयाँ, भीतर की ऊँचाइयाँ देगा। कल मेरा एक सज्जन से मिलना हुआ, बातों-बातों में मैंने उससे कहा, आप तो बहुत सम्पन्न और प्रतिष्ठित व्यक्ति मालूम होते हैं। उसने जो कुछ उत्तर में कहा वह बहुत मार्मिक और चिन्तनीय है। उसने कहा कि आप तो संन्यासी हैं, आप नहीं जानते यह सब बाहर की सम्पन्नता है, आन्तरिक रूप से तो मैं अत्यन्त विपन्न हूँ। मैं तो आपकी आंतरिक सम्पन्नता से चमत्कृत हूँ। आपकी भीतर की सम्पन्नता ने ही मेरी बाहरी सम्पन्नता में छिपी सम्पन्नता का बोध कराया है। मेरा यह बाहर का धन मुझे वास्तविक धन तो नहीं दिला सकता।
मनुष्य को जीवन-यापन के लिए सिर्फ रोटी, कपड़ा और मकान की आवश्यकता है,लेकिन उसकी आकाक्षाएँ असीम हैं। फिर आकांक्षाएँ उसे बाह्य रूप से तो सम्पन्न बना देती है, लेकिन आंतरिक विपन्नता उसी तुलना में बढ़ती जाती है। स्वयं को रूपांतरित करो। अब धन के द्वार से ध्यान के द्वार की
ओर छलांग लगाओ। ध्यान में डुबकी लगाओ, तब तुम अपने अंदर की एकएक अंधेरी सुरंग को पार करते हुए उस अन्तःस्थल तक पहुँच जाओगे, उस नाभिकेन्द्र के मध्य बिंदु तक पहुँच जाओगे जहाँ से जीवन में ऊर्जा का संचरण होता है। उस केन्द्र तक पहुँचोगे जहाँ ऊर्जा शक्ति मिलती है। जहाँ से चेतना जाग रही है, वहाँ तक तुम्हारा प्रवेश हो जाएगा। ध्यान तुम्हें वहाँ ले जाएगा, जहाँ जीवन के अर्थ प्रारम्भ होते हैं। धन की लोलुपता मिटने से ध्यान का द्वार खुलता है।
सातों दिन भगवान के : : 21
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