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हो, प्रवचन सुनते हो, स्वाध्याय करते हो, सब इसीलिए कि किसी तरह वह द्वार खुल जाए, लेकिन जब उस द्वार के निकट पहुँचने को होते हो कि संसार की खुजली वापस लौटा देती है। तुम्हारे जीवन में मुक्ति दरवाजे तो कितनी ही बार आते हैं, कितने ही रूपों में आते हैं, लेकिन संसार के कांटे, संसार की खुजली, संसार के सम्बन्ध उन द्वारों से आगे बढ़ा देते हैं और तुम अवसर चूक जाते हो।
चाहे तुम कहते रहो कि तुम्हें मार्ग की तलाश है, जिंदगी के द्वार की तलाश है, जीवन के रास्तों की तलाश है, लेकिन जब भी मार्ग सामने आता है तुम आँखें बंद कर लेते हो। मुझे याद है, एक बार मैं किसी दुकान के सामने से निकल रहा था। दुकानदार ने मुझे आमंत्रित किया। उसने धर्म-चर्चा की और चर्चा के दौरान कहा कि महाराजजी ! मैं भी स्वर्ग देखना चाहता हूँ, क्या मैं मुक्ति के द्वार पर जा सकता हूँ, मेरी तीव्र अभीप्सा है पर क्या मैं परमात्मा के दर्शन कर सकता हूँ। मैंने कहा कि बिल्कुल तुम यह सब अभी कर सकते हो क्योंकि मैं स्वर्ग ही जा रहा हूँ, तुम भी मेरे साथ चलो, अभी मुक्ति के द्वार और परमात्मा के दर्शन करवा सकता हूँ। बस उठो और चल पड़ो। पता है उस व्यक्ति ने क्या कहा ? कहने लगा प्रभु, अभी तो व्यस्त हूँ, आधा घंटा रुक जाइए फिर चलता हूँ, अभी तो मेरी ग्राहकी चल रही है, बेटा दुकान पर आ जाए, उसे सब समझा दूँ, सम्भला दूं, तब चलता हूँ। ऐसा ही होता है। छलांग लगाने की हिम्मत हमारे पास नहीं है। तुम्हारे जीवन में बहुत से अवसर आते हैं लेकिन तुम उन्हें छोड़ते चले जाते हो।
ऐसे अवसर आते हैं जब किसी का सत्संग पाते-पाते, किसी का सामीप्य मिलते-मिलते, तुम्हारा अन्तौन्दर्य जाग उठा था, तुम्हें लगा कि अभीप्सा जाग रही है, अन्तश्चेतना की तलाश के भाव उठे, लेकिन तुम यहाँ से उठे, बाहर गए और आँखें बंद कर लीं। द्वार सामने आया और तुम आँख बंद कर निकल गए वापस संसार में! तुम चर्चा में भी मशगूल हुए। जो सुना उसकी मूढ़ता भी पहचानी, कहीं कोई चोट भी पड़ी, लेकिन घर तक पहुँचते-पहुँचते सब अर्थ अनर्थ हो गए। कोई सार्थकता नहीं रह गई। मार्ग आया और तुम विस्मृत कर गए। मैं जानता हूँ कि मनुष्य अज्ञानी नहीं है। वह सब जान रहा है, देख रहा है, फिर भी उपेक्षा कर रहा है। जानबूझकर अज्ञानी और अबोध बन रहे हो। वह जान रहा है कि उसके जीवन का श्रेयस्कर मार्ग, कल्याणकारी मार्ग कौनसा है, फिर भी उन्हें छू नहीं रहा। उन पर चलने का प्रयास नहीं कर रहा। जब भी किसी तीर्थंकर ने, बुद्ध ने या सदगुरु ने हमारा हाथ पकड़कर मार्ग दिखाना
20 : : महागुहा की चेतना
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