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________________ सातों दिन भगवान के बहुत पुरानी घटना है, फिर भी चिर नवीन मालूम पड़ती है। कहते हैं किसी महल में आग लग गई। महल के सभी व्यक्ति आग से बचने के लिए बाहर की ओर दौड़ पड़े। जिसे जहाँ जो द्वार दिखाई दिया, वह उसमें से बाहर निकल गया, लेकिन एक अंधा व्यक्ति महल में ही रह गया। अग्नि की ऊष्मा से उसे महसूस हुआ कि आग लग गई है। वह भी दीवार टटोल-टटोलकर आगे बढ़ा। एक दरवाजा आया लेकिन वह बंद था। धीरे-धीरे फिर आगे बढ़ा एक और द्वार के समीप पहुँच इधर-उधर हाथ चलाया, पर उसे भी बंद पाया । फिर दीवारों का सहारा लेते हुए जैसे-तैसे तीसरे द्वार के निकट पहुँचा, भाग्य से यह दरवाजा खुला था। वह अंदर जाता इसके पहले उसके सिर में तीव्र खुजली उठी । वह सिर खुजाते- खुजाते आगे बढ़ गया और खुला हुआ द्वार पीछे रह गया । अब तो वह अग्नि से घिर चुका था । लपटों की तीव्रता भी महसूस कर रहा था, पर क्या करे चारों ओर से अंगारे भी गिरने लगे और वह महल से कभी नहीं निकल सका। जरा दृष्टिपात करें कि क्या ऐसी ही घटनाएँ हमारे साथ रोज-रोज नहीं घट रही है। हम भी इन्हीं स्थितियों से घिरे हुए नहीं हैं ? और जब अवसर आता है बाहर निकलने का मुक्त होने का, हम भी सिर खुजाते ही रह जाते हैं और अन्ततः हमारी स्थिति उस अंधे के समान हो जाती है । जब भी बंद दरवाजे हमारे सामने आते हैं हम उन्हें तो टटोलते रहते हैं, मार्ग भी खोजते रहते हैं, लेकिन जैसे ही किसी खुले द्वार के निकट पहुँचते हैं संसार का कांटा पाँव में चुभ जाता है और इस कांटे को निकालने में जो समय लगता है तब तक द्वार पीछे चला जाता है । तुम पूजा-पाठ करते हो, सत्संग में जाते सातों दिन भगवान के 19 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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