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________________ किरण है। इसका विस्तार करना है। तुम्हारा पत्नी के प्रति जो प्रेम है, वह राग है। राग तो पानी का डबरा है और प्रेम बहती हुई नदी। राग बहुत सीमित होता है और प्रेम में है अनंत विस्तार । परम प्रेम, जिसमें वासना की गंध न हो, जिसमें आकांक्षा पूर्ति की कामना न हो, उस प्रेम को उपलब्ध करो। पावन दशा-जब व्यक्ति ध्यान की अतल गहराइयों में उतरता है तो उसे दूसरा फल मिलता है-पावन दशा का। तुम ऐसे व्यक्ति हो जाते हो जिससे निर्मलता और पवित्रता प्रकट होती है। तुम्हारी अवस्था इतनी सौहार्दपूर्ण हो जाती है, जैसे कोई बालक । बालक जैसी सुकुमारता और निश्छलता तुम्हारे अंदर से झरने लगती है। छोटे बच्चे देखे हैं न, अभी उनके अंदर संसार की कलुषता ने प्रवेश नहीं किया। वे कितने भोले और निर्दोष दिखाई देते हैं। ऐसे ही ध्यान का जब दूसरा फूल खिलता है तुम उस निर्दोष और निश्छल बालक जैसे हो जाते हो। तुम्हारा सारा कल्मष धुल जाता है और तुम पावन दशा को प्राप्त कर लेते हो। प्रेम और निर्दोषता के बिना तो हमारी स्थिति रजत पर जमी हुई धूल के समान है। संबोधि-सूत्र आगे कह रहा है-'दृष्टि भले आकाश में, धरती पर हो पाँव। हर घर में तरुवर फले, घर-घर में हो छाँव। तुम्हारे लक्ष्य तो ऊँचे होने चाहिए, पर उनमें अहंकार का लेशमात्र भी समावेश न हो। अपनी उपलब्धियों पर गर्व मत करना, वरना तुम जो पाओगे वह भी खो दोगे। इसलिए अपने को जमीन पर ही टिकाए रखना। तुम तो एक दीपक हो जाना, जिसकी किरणें दूर-दूर तक फैलकर रोशनी बांट सकें, अंधकार दूर कर सकें। एक वृक्ष जो तुम अपने आंगन में लगाते हो, उसकी छाया पड़ोसी के घर को भी आवृत्त कर देती है। उसके फल और फूल सबको लुभाते हैं। तुम भी ऐसे ही वृक्ष बन जाना, जिसकी शीतल छाया में सभी आनन्द प्राप्त कर सकें, जिसकी मधुरता से सभी आप्लावित हो सकें। तुम रहोगे तो संसार में ही, पर संसार से निर्लिप्त हो जाओगे, कीचड़ में कमल की तरह पवित्र रहोगे। तुम्हारे प्रेम और पवित्रता की छाया सम्पूर्ण सृष्टि में फैल जायेगी। आज के सूत्रों का सार यही है कि मेरे और तेरेपन के भाव को तिरोहित कर सम्पूर्ण अस्तित्व में स्वयं का विस्तार करलो। तब तुम्हें परम प्रेम और पावन दशा उपलब्ध हो जाएगी। और तुम्हारी दिव्यता की, प्रभुता की किरणें सभी को आलोकित करेंगी। एक दीपक से अनेक दीपक जल उठेंगे। 18 : : महागुहा की चेतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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