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अगला चरण है- 'जीवन का सम्मान हो, बाँहों भर संसार - साधक पूछ रहा है तुम किसका सम्मान कर रहे हो ? धन, पद, परिवार, सम्बन्ध किसका सम्मान कर रहे हो ? एक दौड़ में शामिल हो गए हो। धन का एकत्रीकरण कर रहे हो, सत्ता और सम्पत्ति जमा करना चाहते हो, परिवार की प्रतिष्ठा में लग गए हो, लेकिन खुद की प्रतिष्ठा कब होगी, स्वयं का सम्मान कब होगा ? इन सबके बीच तो तुमने स्वयं को डुबा ही दिया है। साधक कह रहा है, तुम अपने जीवन का सम्मान करो। तब तुम्हारे अन्दर विश्व-बंधुत्व के भाव जाग्रत होंगे और सारा संसार तुम्हारी बाँहों में होगा । जिस दिन जीवन के प्रति स्नेह और सम्मान महसूस होगा, तब यह संसार तुम्हारी बाँहों में सिमट जाएगा । तुम्हारी चेतना में सम्पूर्ण सृष्टि समा जाएगी ।
परम प्रेम पावन दशा, जीवन के दो फूल, बिन इनके यह चेतना, जमीं रजत पर धूल ।
जीवन के सिर्फ दो फूल हैं, जिनमें से सुवास उभरकर आ सकती है, एक है परम प्रेम, दूसरा पावन दशा । वे फूल भला किस काम के जिनमें सौन्दर्य तो है पर सुगन्ध नहीं। लेकिन प्रेम और ध्यान से उपलब्ध पावन दशा वह फूल है जिसमें सौन्दर्य भी है और सुगन्ध भी । व्यक्ति जन्म से मृत्यु तक प्रेम की तरंगों में जीता रहता है। शैशवकाल में तुम्हारा प्रेम माता-पिता और खिलौनों से था । किशोर अवस्था में तुम्हारे प्रेम ने विस्तार लिया। भाई-बहिन, सखामित्र, परिवार के, समाज के अन्य सदस्य तुम्हारे प्रेम के दायरे में आने लगे । प्रेम तो यथावत है उसकी तरंगें फैल रही हैं । व्यक्ति की चेतना में प्रेम शाश्वत है, क्योंकि चेतना प्रेम की पर्याय है । निमित्त बदल गए । बचपन से किशोर और किशोर से युवा हो गए, तुम्हारा विवाह हो गया, प्रेम ने और विस्तार पाया । पत्नी की ओर प्रेम बढ़ गया। बच्चे हुए, वे बड़े होने लगे, तुम्हारा प्रेम पत्नी से बच्चों पर आ गया, पौत्र हो गए तो पुत्रों का प्रेम पौत्रों की ओर आ गया । निमित्त बदलते रहे, प्रेम बढ़ता रहा । संसार की भौतिकता में निमित्त बदल जाते हैं, लेकिन मनुष्य की चेतना में प्रेम शाश्वत जमा रहता है। यह तो रागात्मक लगाव था । इसे तुम भले ही प्रेम का नाम दो, लेकिन साधक के लिए तो दिव्यचेतना से उत्पन्न प्रेम ही परम प्रेम है। इस प्रेम से तुम अपनी प्रमुता को पा सकते हो।
आज जिसे तुम प्रेम कह रहे हो या प्रेम कर रहे हो वह तो सूक्ष्म रूप में चलने वाली वासना है, कोई तृष्णा है । हमारे भीतर उठने वाला सम्मोहन है - इन्हें ही हमने प्रेम की संज्ञा दे दी। यह प्रेम नहीं है। प्रेम तो परमात्मा की
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बाँहों भर संसार : 17
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