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________________ जाने कितना गहरा हो । रात भर पकड़े-पकड़े थक जाता है कि भोर होने लगती है और उसके हाथ जड़ों से छूट जाते हैं। वह पाता है कि जमीन तो सिर्फ आधा फुट नीचे है। लेकिन व्यक्ति जड़ों को पकड़े खड़ा है, पता नहीं कितना गहरा गड्ढा होगा। गिरा तो अंतहीन गड्ढे में चला जाऊंगा। पर वह नहीं जानता कि गड्ढा तो सिर्फ आधा फुट गहरा है, फिर नीचे तो जमीन है। यह मेरापन जड़ें हैं। इन जड़ों की पकड़ छूटते ही तुम अपने चेतन तत्त्व, आत्म-तत्त्व के निकट हो जाते हो। मेरे प्रभु, संसार की वस्तुएँ पाने के लिए तो तुम्हें कुछ परिश्रम भी करना पड़ता है, कभी-कभी खोना भी पड़ता है, लेकिन यहाँ तो न परिश्रम करना है और न कुछ खोना है, फिर भी सब मिल जाता है। मैंने तो यही जाना है कि व्यक्ति के निकटतम अगर कोई है तो वह उसकी परम दिव्य चेतना है। यहाँ तक कि बाह्य वस्तुएँ या सांसारिक सम्बन्ध तो दूर हैं, तुम्हारा अपना शरीर भी तुमसे एक दूरी पर है। तुम्हारे मन और विचार भी एक दूरी बनाए हुए हैं। सिर्फ परमात्मा और तुम्हारी चेतना एकदम निकट है। निकट ही नहीं, बल्कि एक ही है। ध्यान में इन्हें पाना है । यहाँ खोना कुछ नहीं है, केवल पाना है। सब कुछ मिल जाता है । छोड़ने से जो न छूटा, वह खुद-ब-खुद छूट जाता है । छोड़ना भी नहीं पड़ता। सच पूछो तो छोड़ने जैसा कुछ भी नहीं । बस, पाने की खोज करो। वह तुम्हारे ही भीतर है। मिट्टी हटे तो निर्झर फूटे। भगवान बुद्ध के पास एक युवक पहुँचा। पूछने लगा-भगवन्! समाधि में प्रवेश करने से, सिद्धि को पा लेने से आपको क्या मिला। भगवान मुस्कराये और कहने लगे-वत्स, कुछ भी नहीं मिला, तीस वर्षों तक साधना करने के पश्चात् मुझे कुछ नहीं मिला, सिर्फ खोया ही खोया है। युवक चकित रह गया कि ऐसा कैसे हो सकता है भगवन् ! बुद्ध ने समाधान दिया, जिसे मैं खोज रहा था, उसे पाने की जरूरत नहीं थी - वह तो सदा से मेरे भीतर ही विद्यमान थी। और जो खोया है वह हैं मेरी वृत्तियाँ, कषाय-भाव, मन और मन की तरंगें, विचारों की उथल-पुथल - ये सब मैंने खोये हैं । साधना और समाधि पाने की नहीं खोने की यात्रा है। जब सब कुछ छूट जाएगा तो वह पा लोगे जो सदा से है। घर से बाहर निकलने के लिए देहरी से कदम बाहर कर दो, घर खुद ही छूट जाएगा। इसके लिए किसी आयोजन की आवश्यकता नहीं है। तुम घर में खड़े-खड़े चाहे जितना सोचो कि घर मुझसे पीछे छूट जाए । घर छूटने वाला नहीं । तुमने अपना पाँव आगे बढ़ाया कि घर छूट गया । ध्यान भी दो कदम आगे बढ़ाने की प्रक्रिया है । 16 महागुहा की चेतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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