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मेरा-तेरा भाव क्या, जगत् एक विस्तार, जीवन का सम्मान हो, बाँहों भर संसार । परम प्रेम पावन-दशा, जीवन के दो फूल, बिन इनके यह चेतना, जमीं रजत पर धूल। दृष्टि भले आकाश में, धरती पर हों पाँव,
हर घर में तरुवर फले, घर-घर में हो छाँव । साधक, जिसने सत्य को पहचान लिया है, जिसने यह प्रतीति कर ली है कि ओ ! बेसुध भागती नदियो ! तुम कहाँ दौड़कर जा रही हो, मुरली के स्वर तुम्हारे भीतर है। तुम्हारी कल-कल और छल-छल लहरों में ही मुरली की ध्वनि आ रही है। तुम भी जो बाहर की ओर दौड़ लगा रहे हो, काश स्वयं के भीतर देखो, अपने अन्तर के निनाद को सुनने का प्रयास करो। 'मेरा-तेरा भाव क्या जगत् एक विस्तार' मेरे-तेरे का भाव ही संसार का सबसे बाधक तत्त्व है। आधिपत्य की भावना का हास होता है, उसी दिन से सारा जगत अपना होना शुरू हो जाता है। यहाँ क्या अपना है और क्या पराया ? सब कुछ अपना है या सभी का है। तुम जिन सम्बन्धों की डोर से आज पिता बने हो कल पुत्र भी हो जाओगे। क्या तुम जानते हो हर किसी जन्म में ये सम्बन्ध यथावत् रह पाएंगे, फिर मेरा और तेरा क्या। न तुम किसी के जन्म पर प्रसन्न होते हो और न किसी की मृत्यु पर दुखी होते हो। बहुत गहरे में दूसरे के जन्म की खुशी तुम्हारे अपने जन्म की याद दिला जाती है और तुम प्रसन्नता से भर जाते हो। ठीक इसी तरह किसी की मृत्यु तुम्हारी अपनी मृत्यु की खबर लाती है और तुम दुखी हो जाते हो, व्यथा से भर जाते हो।
संसार में प्रति मिनट नब्बे शिशु जन्म ले रहे हैं, लेकिन तुम कोई खुशी नहीं मनाते, लेकिन मेरेपन का भाव आने पर खुशियाँ स्वतः आ जाती हैं। मेरा बेटा, मेरा पौत्र-बस मेरा। मृत्यु भी मेरेपन का दुःख लाती है-मेरी पत्नी की मृत्यु, मेरे भाई, मेरे पिता का अवसान-यह 'मेरा दुख ले आता है। आज जो तुम्हारा है कल किसी और का हो जाएगा। तुम्हारी ममत्व बुद्धि तुम्हें निजी स्वार्थों की ओर धकेलती है। बाहर से भले ही ऐसे स्वार्थ दिखाई न दें, लेकिन भीतर सूक्ष्म रूप से कहीं-न-कहीं स्वार्थ सध रहा है। तुम्हारी स्वार्थपरता इतनी गहन है कि तुम इसके लिए कितना भी नीचे गिर सकते हो।
मुझे याद है : एक डॉक्टर ने अपने पुत्र को विदेश में डॉक्टरी पढ़ने के लिए भेजा। छ: वर्ष के बाद बेटा डॉक्टर बनकर वापस आया। माता-पिता प्रसन्न हुए। पिता ने सोचा-पुत्र तो डॉक्टर बन गया है, मेरा क्लीनिक सम्भाल लेगा। 14 : : महागुहा की चेतना
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