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________________ अब प्रतिदिन वह प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त हो तिजोरी में से दर्पण निकालता, पिताजी के दर्शन करता और पुनः दर्पण को तिजोरी में रख देता। उसकी पत्नी को संदेह हुआ कि यह माजरा क्या है। रोज सुबह-सुबह तिजोरी खुलती है, उसमें से कुछ निकालता है और देखकर वापस रख देता है। अब शक का क्या इलाज। और फिर जब पत्नी शक करे तो हकीम लुकमान भी हथियार डाल देते हैं। अब तो उसे चिंता सताने लगी कि कैसे तिजोरी की चाबी मिले और उस छिपी हुई चीज को देखे। एक दिन वह मौका भी आ गया। किसान चाबी घर में ही भूलकर बाहर चला गया। बस पत्नी ने तुरन्त वह दर्पण निकाला और उसमें देखा ! अपना ही चेहरा देखकर दांत पीसने लगी, अनर्गल बकने लगी-अच्छा तो यह बात है। मेरे से मन भर गया तो मेरे जैसी ही दूसरी तलाश ली है और उसका चित्र तिजोरी में छिपा रखा है। अब इस स्त्री को कौन समझाए कि अगर वह पसन्द नहीं, तो ठीक उसी के जैसी दूसरी स्त्री को क्यों पाना चाहेगा? अरे जब दूसरी लानी है तो दूसरे तरह की होगी, ज्यादा सुन्दर या कमसिन या....। कैसी भी हो सकती है, पर उसके जैसी तौबा ! पर क्रोध में विवेक कहाँ ! बस वह दर्पण निकाला और दे पटका जमीन पर। हजार टुकड़ों में तब्दील हो गया वह; दर्पण में कुछ भी न बचा। तुम्हारा आकर्षण, सम्मोहन तभी तक था जब तक आईना तुम्हारे सामने था। आईने के टूटते ही, हटते ही सब समाप्त हो जाता है। जगत् तुम्हारा प्रतिबिम्ब है, इससे अधिक कुछ नहीं। जब तक तुम यहाँ हो, तुम्हारा प्रतिबिम्ब है, जैसे ही संसार से हटे कि सब साफ हो जाएगा। दर्पण पर से धूल हटी, वह फिर चमकने लगा। जो भी रंग तुम उस पर डालोगे वही प्रतिबिम्बित होगा। नीले से नीला, पीले से पीला, हरे से हरा और लाल होने पर लाल रंग ही लौटकर आएगा। ऐसे ही तुम जिस मनःस्थिति में होते हो, संसार भी उसी मनोदशा में दिखाई देता है। तुम्हारी प्रसन्नता, सुख, आनन्द तुम्हें वापस यहीं लौटाते हैं और क्रोध-आदेश-उन्मत्तता में तुम्हें सभी इसी प्रकार के नजर आते हैं। आईने के सामने से रंगों को हटा देने से दर्पण बिल्कुल स्वच्छ हो जाता है। इसी प्रकार जब व्यक्ति को बोध हो जाए कि मेरे साथ सभी सम्बन्ध लौकिक, भौतिक और क्षणिक हैं, वहाँ मेरेपन के भावों में क्षीणता आने लगती है। और वह साधक जो अपने भीतर के आकाश में शून्य और मौन के साथ स्वयं को तलाश रहा है कि मैं कौन हूँ, मेरा अस्तित्व क्या है, मेरे भीतर क्या है ? जब उसका आत्मविश्वास जाग जाता है, मन की दशा शांत हो जाती है, तब उस शिखर से वह सृष्टि को देखता है और तब उसके भीतर से संसार और संसार की भौतिकता के लिए कुछ शब्द उभरते हैं। संबोधि-सूत्र के शब्द हैं बाँहों भर संसार : : 13 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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