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________________ बोध के कारण हम जिंदगी में कृत्य तो करते हैं, लेकिन बेहोशी में। बेहोशी में भोजन बनाते हो, तो उसका परिणाम निकलता है, कभी सब्जी में नमक नहीं और कभी लगता है नमक में ही सब्जी बनाई है। यह सब असजगता का परिणाम है। क्षण-क्षण सजगता, ध्यान की ओर प्रवृत्ति है। ध्यान का अगला चरण है-मौन। मन को शांत करने की यह सबसे सरल प्रक्रिया है। मौन का अर्थ चुप्पी नहीं है। केवल मुँह बंद रखना भी मौन नहीं है। भीतर के उद्वेग और संवेगों का समाप्त हो जाना मौन है। वाणी की चुप्पी तो व्यावहारिक रूप है। अगर भीतर अंतर्द्वन्द्व जारी है, तो यह वाणी का मौन निरर्थक है। विवेकपूर्ण, सजगता से वाणी का प्रयोग करना मौन का गूढार्थ है। यह मौन का लक्ष्य भी है। अन्तर की सजगता में जब मौन हो तो किसी के कटु शब्द भी आवेग की लहरें नहीं उठा सकते। जब ऐसी स्थिति सध जाये तभी जानना कि तुम वास्तव में मौन हो पाए हो। अन्यथा इधर कंकर गिरा और उधर तालाब में लहरें उठनी शुरू हो गईं। शांति की मौन झील में निस्तरंग हो जाना ही मौन की सजगता का परिणाम है। साधक कह रहा है-'गीत शून्य के गा रहा, महागुफा में मौन।' शून्य क्या है? आज आप वृद्ध हैं, कल आप युवा थे। उससे पहले एक किशोर, एक बालक, एक नवजात शिशु थे। शिशु से पहले माँ के गर्भ में थे और उससे पहले? उससे पहले शून्य रूप थे। चेतना का मूल अस्तित्व शून्यमय होता है। वे जो गीत उठ रहे हैं, वे होंठों से नहीं उठ रहे हैं, देह, तर्क, बुद्धि या ज्ञान-मनीषा से नहीं उठ रहे हैं। वे तो शून्य के गीत हैं, अन्तर के गीत हैं। जिसने जाना है स्वयं को, वह अपने आत्मज्ञान में ही जीता है। उसकी छाया वह स्वयं है वह चाहे तरुवर की छाँव में बैठा हो या सूरज की धूप में उसकी मुस्कानों में कहाँ अन्तर आता है। तरुवर की छाँव तो शरीर को सुख दे सकती है, किन्तु साधक तो बैठे अपनी ही छाँव में। दिन में सूरज न तपे यह सम्भव ही नहीं है, रात में अंधेरा न घिरे यह मुमकिन ही नहीं है। लेकिन जो रात और दिन, सुख और दुख, अपेक्षा और उपेक्षा, हर परिस्थिति में मुस्कान से भरा रहता है, वह छत की छाँव में नहीं वरन अपनी छाँव में बैठा है। ऐसे व्यक्ति को तो दूर से ही देखो तो जी हुलसित हो जाता है। उसकी आँखों से खुदा का नूर बरसता है। उसने अनहद अमृत-पान किया है। वह अपनी ही छाँव में, अपने ही आनन्द में आसीन है। बिन बाजा झंकार उठे, रस गगन गुफा में अमिय झरे । कबीर जब साधना की गहराई में उतरते हैं और साधना की अनुभूति के करीब जाते हैं, 8 : : महागुहा की चेतना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003894
Book TitleMahaguha ki Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1999
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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